कठकरेजी

राजबनी कुछ कसल-कसल।
डोले झिर-झिर पुरवइया रे।

भोरघुमंतू बूढ़ा-बूढ़ी
सितिआइल सुकवार दूब पऽ
दँवरी पारे।
बगले में मनबढ़ मुस्टंडा
एक सहस्सर डंड पेल के
पाँखुर झारे।

एक ओरि धुंधरात आँखि के फिकिर बाटे।
गठिया से टभकत ठेहुना के जिकिर बाटे।
डम्हकल आम टपकबे करिहें,
केहू कही।
कतिनो रँउदऽ दूब बूढ़ंगी
होनी त होइए के रही।

एने चढ़ल जवानी का जोमे अन्हरइले।
रग में उफनल नया खून,
उमकल फफनइले।
दूध मतारी के पीअल से गाटा गही।
काल कबो अझुरइहें लंगी
परिहें चित्ते कुछ ना लही।

बूझसि ना निरदइया रे।
धांगत जासि पतइया रे।
कतिना दुख पइनीं दूनों से,
भइले काठ कसइया रे।

 

  • दिनेश पांडेय

पटना

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