हर रंग में रंगाइल : ‘फगुआ के पहरा’

एगो किताब के भूमिका में रवीन्द्रनाथ श्रीवास्तव ऊर्फ जुगानी भाई लिखले बाड़े कि ‘भाषा आ भोजन के सवाल एक-दोसरा से हमेशा जुड़ल रहेला। जवने जगही क भाषा गरीब हो जाले, अपनहीं लोग के आँखि में हीन हो जाले, ओह क लोग हीन आ गरीब हो जालंऽ।’ ओही के झरोखा से देखत आज बड़ा सीना चकराऽ के कहल जा सकत बा कि भोजपुरी समृद्ध बा, भोजपुरिया मनई समृद्ध बा। हमरा ई बात कहला के बहाना श्रेष्ठ शिक्षक, सुलझल मनई आ सरस मन के मालिक कवि-साहित्यकार डाॅ. रामरक्षा मिश्र विमल जी के किताब ‘फगुआ के पहरा’ बा। एह किताब के पढ़ला पर बिना कवनो चश्मे के साफ लउकत बा कि माटी के गंध जहवाँ ले फइलल बा, विमल जी के कविता के विषय ऊहवाँ ले बाटे। कविश्री अपना भोजपुरिया परम्परा के निभावत लगभग सगरो विषय पर आपन लेखनी चलावत माटी के सुगंध के असली रूप में पेस कइले बानी। जइसन कि किताब के नाव से लागत बा कि एहमें प्रकृति के सरस आ उदात्त रूप पर रचना ढेर होई, बड़लो बा, बाकिर ओहके देखे के आँखि दोसर बा।

‘वनांचल प्रकाशन’ से प्रकाशित ई ‘फगुआ के पहरा’ के दूसरका संस्करण हऽ। भोजपुरी कविता के किताब के दूसरका संस्करण छपल अपने-आप में इतिहास बनल बा। एह उपलब्धि खातिर मन ऊँहा के बेर-बेर बधाई देत बा। ई किताब में तीन तरह के रचना बा। ओह रचनन के कविश्री गीत, ग़ज़ल आ कविता नाम से अलगा कइलहूँ बानी बाकिर कवनो स्तर पर ऊहाँ के शब्द-शिल्प आ प्रस्तुति कहीं भंग नइखे। काव्य परम्परा के निर्वाह करत कवि के पहिलका रचना सरस्वती माई के गोहार ‘बरिसावऽ माँ नेह सुधा’ बा जेहमें कवि स्वार्थ से ऊपर उठ के परमार्थ खातिर प्रार्थना करत बानी। देखीं ना –

अनाचार के सगरो पहरा

बिलखत जिनगी के भिनसहरा

फइला दऽ ना ग्यान जोति

जड़ बुधि होखो चंचल।

कवि के क्रान्तदर्शा कहल जाला। कवि भूत-भविष्य, सबके ज्ञाता मानल जालें। कवि विमल जी के गीतन में ओही गुण से साक्षात् होताऽ। आज समाज में ढेर फूट-मतभेद समाइल बा। लोग हर एक घटना-परिघटना के जाति-धरम के आँखि से देखत बा। सभे अपना के सयान बूझत बाऽ। साहित्यकार अइसन जीव होलें, जे के ना कवनो जाति होला, ना कवनो धरम। उनका खातिर सगरो धरती घर हऽ आ सभे केहू आपन। तबे नू ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ लिखल गइल। कवि रामरक्षा मिश्र विमल जी ओही साहित्यकार जाति-धरम के माने वाला हवें, जे आपसी मनभेद-मतभेद भूलवा के सँघतिया बने खातिर बोलावत बानी। एगो उदाहरण देखीं ना, –

आईं हमनी सभ बइठीं सुख-दुख आपन बतियाईं जा

घरफोरवा बा के हमनी के ओकर पता लगाईं जा

मान बढ़ाईं जा माटी के भेदभाव सब छोड़ के।

दुअरा-अँगना कहिया छिटकी मधुर किरिनिया भोर के।।

श्री विमल जी के गीतन के बिम्ब बड़ा साफ बाऽ। पढ़ते पाठक के मन में एक-एक बिम्ब अँजोर कऽ देत बाऽ। मन बरबस कहीं अउरी चल जा ताऽ। ‘असो जाए फगुनवा ना बाँव सजना’ के बात होखे चाहें, ‘लागेला रस में बोथाइल परनवा’ के बात होखे, ‘दूब के सुतार’ चाहे ‘फागुन के आसे’ के बात, एह सब रचनन में चित्रन के देख के मन कुछ अउरी सोचे खातिर बेसूध हो जात बाऽ। एगो चित्र रउरो देखीं ना –

डर ना लागी

बाबा के नवकी बकुली से

अँगना दमकी

बबुनी के नन्हकी टिकुली से

कनिया पेन्हि बिअहुती

कउआ के उचराई।

डाॅ. रामरक्षा मिश्र विमल जी के रचना संसार के विशेषता में ऊहाँ के लोकोक्ति आ मुहावरा के सहज प्रयोग बा। एह किताब में प्रस्तुत सगरो विधा में लोकोक्ति आ मुहावरा के सहज आ रोचक प्रयोग लउक सकेला। ऊहाँ के अपना आँखिन के देखी के मुहावरन से गढ़ि के प्रभावशाली रूप से सामने राखत बानी। कुछ उदाहरण देखीं –

खतरा बा लाँघला पर आपन सिवान

कठवति के गंगा में कउआ नहान।

चाहे

अब तऽ पनियो में अगिया के हलचल होखे लागल बा।

चाहे

मिले सेर के सवा सेर

औकात बुझाए लागल।

कवि जी अपना लेखनी के ताकत से गीत, ग़ज़ल आ कविता के आपन जरिया बना के अपना सर्जना के सथवे भोजपुरी संवेदना के नया दिशा देहले बानी,जवन हमेशा साहित्य-प्रेमी लोग खातिर अनुकरणीय रही। ऊँहा के ‘आँखि लाग गइल’ जइसन कवितन में सबके आँख भर देबे के कूबत बा। ओहके पढ़ते भाव के अइसन दरियाव बढ़िया जाला कि कवनो बान्ह टूट जाला। कविश्री के दोहा मीठ पाग में पगल सीख देत बाड़ी सों। ऊहाँ के सगरो दोहा में ठेठ भोजपुरिया, सुभाव आ बात-व्यवहार के पाग बा। एगो देखीं ना, –

झट से निरनय जनि लिहीं, घिन आवे भा खीस।

झुक जाए कब का पता, कट जाए कब सीस।।

किताब के भूमिका पढ़त में कई बेर पता चलत कि कविश्री रामरक्षा मिश्र विमल जी खाली एगो कवि ना हईं, ऊँहा के रचनाकार के सथवे एगो सरस गायको हईं, एगो मजल कलाकारो हईं। ऊहाँ के ग़ज़ल के पढ़ के ऊपर वाला सगरो बातन के सत्यापन हो जात बा। कवि के ग़ज़ल के रदीफ आ काफिया बड़ो बा आ छोटो बा, बाकिर मतला, बहर, सबमें ऊहाँ के रचनाकार अनुभव साफ झलकत बा। पाठकगण ग़ज़ल एक, दू, आठ, दस, चउदह, सोलह, अनइस, बीस, एकइस, बाइस आदि के बड़का आ तीन, चार, छव, नौ आदि के छोटका रदीफ़-काफ़िया देख सकेला। कवि के ग़ज़ल के विषय-वस्तुओ देखे जोग बा।‘स्वाइन फ्लू’ रदीफ़ पर एगो ग़ज़ल देखीं –

बंद भइल अब सब खिरिकी दरवाजा आइल स्वाइन फ्लू

बचिहऽ भइया आफति के आफति अफनाइल स्वाइन फ्लू

‘फागुन के पहरा’ में विषय आ विधा के विविधता कवि के मौलिकता, प्रगतिशीलता आ रचनाशीलता के प्रमाण बाऽ। एह किताब में ‘जिनगी के रंग’ विषयक हाइकुओ बाटे। हाइकु पढ़ला के बाद आजु के हाइकु-प्रकृति के धेयान आ गउवे। पिछलके साल हिंदी हाइकु के सौ साल मनावल गइल हऽ। ओहके आधार पर कहीं तऽ आजु-काल्ह हिंदी हाइकु-विधा के जवन विधि चलत बा, ओहमे दू गो धारा मिलेला। एगो धारा मानेला कि हाइकु में प्रकृति के चित्रण के साथे दू बिम्बन के प्रस्तुति होखे के चाहीं। एह हिसाब से खाली पाँच – सात – पाँच वर्ण के मिलन के हाइकु नइखे हो सकत। दू गो बिम्ब हाइकु खातिर अनिवार्य मानल जाला। वइसे कविश्री के हाइकु में कइगो बिम्ब बनल बाऽ आ प्रकृति के लगहूँ बा। देखीं –

जीयत चलीं

बहार पतझड़

लागले रही।

किताब के दूसरका संस्करण हमरा लगे बाऽ। दूसरका संस्करण के नाते एहमें श्रेष्ठ साहित्यकारन से ले के विद्वतजन लोग के टिप्पणियो पढ़े के मिलल बा। ओही में हम मनोकामना सिंह ‘अजय’ जी के टिप्पणी पढ़नी। जवन ‘ही’ आ ‘भी’ के सथवे अंग्रेजी शब्दन के प्रयोग पर बा। भोजपुरी में ढेर लोग ‘ही’, ‘भी’ के प्रयोग करेला। हमरो विचार से ‘ही’, ‘भी’ के प्रयोग भोजपुरी में स्वीकार्य ना होखे के चाहीं। जहाँ अउरी भाषा के शब्दन के प्रयोग बा, भोजपुरी के ओहसे समृद्धि होईं। कतहूँ से हानि नइखे। कवि के प्रयोग कइल कुछ हिंदी-अंग्रेजी-उर्दू के शब्दन के देखीं – दहशतगर्दी, टीवी, फोन, साउथ, कल्चर, सर पे, रिलैक्स, एहसास, कापी, पेन, प्राॅमिस, साॅरी, स्विच आॅफ, स्वाइन फ्लू, सीबीआई, बेइमान, इंफेक्शन आदि। ‘अनुभव’ शीर्षक का पूरा उदाहरण बा। एगो अनुभव रउरो देखीं। बिम्ब, शब्द आ कहे के ढंग देखीं –

अनुभव

सर दर्द के दवाई

आयोडेक्स

अनुभव

विकास के पर्याय

फ्री सेक्स

डाॅ. रामरक्षा मिश्र विमल जी एगो प्रयोगधर्मी कवि बानी। ऊहाँ के कवितन में विविधता बा, विचार में विविधता बा, जिनगी के हर कोना के अनुभव में विविधता बा आ आदर्शो प्रस्तुति के माध्यम में विविधता बा। किताब पढ़त घरी कई बेर हमके कुछ शब्दन के लिखावट में विविधता लउकल। जइसे‘अंगना’ चाहे ‘अँगना’ खातिर ‘अड.ना’ के प्रयोग हमरा कुछ खटकल। भोजपुरी में हमार अनुभवहीनता आ अल्पज्ञता हो सकेला। पहिले कबो ना पढ़ले रहनी हँऽ। एतने ना, संङे, बड.ला, अड.ुरी, अमिरित, बिशवास, भूँकल आदि हमके ओही तरह के शब्द लागत बा। किताब में ‘ड.’ के प्रयोग ढेर मिली। एगो उदाहरण –

सखियन का संङे जाके गंगा नहाइल

संङे- संङे नून मरिचा साग खोंटि खाइल

नइहर के सुख सब गइले छिनाई

अँखिया लोर बरिसाई ……।

‘फगुआ के पहरा’ निश्चित रूप भोजपुरी के कइगो मरत शब्दनो के जियतार करे वाला किताब बाऽ। कुछ तऽ अइसन शब्दन के प्रयोग भइल बा, जवन भोजपुरी भाषा के धरोहर बा। ओह शब्दन के सहारे कवनो पंच पर भोजपुरी के पक्ष में सभ्यता, संस्कृति आ साहित्य पर बृहद् चर्चा हो सकेला। बाँव, छवरी, पेन्हि, गर्हुआइल, घरफोरवा, सुसुकत, चुहानी, पखाउज आदि ढेर अइसन शब्द आ भाव बा जवना कारने ई किताब पठनीय, लोकप्रिय आ संग्रहणीय बा। पाठक लोग के एह किताब के एक-एक अक्षर पढ़े के चाहीं। ई किताब खाली काव्य के किताब नइखे रहि गइल, विद्वान लोग के विचार के किताब हो गइल बा। किताब के पहिलके फ्लेप पर प्रेमशंकर द्विवेदी जी के लिखल एकहक गो शब्द रचनाकार आ किताब, दूनो के जोरदार भूमिका प्रस्तुत करत बा। पहिलका फ्लेप से ले के पिछला कवर ले के सगरो विचार एगो पाठक आ भोजपुरी साहित्यानुरागी खातिर थाती बाऽ। ई थाती कविश्री विमल जी के लेखनी के कारने बा, ऊहाँ के लेखनी के बहाने बा, एहू खातिर भोजपुरी ऊहाँ के ऋणी रही, आ ‘फगुआ के पहरा’ के बहाने अपना सरस साहित्य के रसास्वादन कराहूँ खातिर ऋणी रहीं। एही शब्दन के साथे कवि के लेखनी के कोटि-कोटि नमन आ सादर प्रणाम।

किताब       : फगुआ के पहरा

कवि   : रामरक्षा मिश्र विमल

प्रकाशक: वनांचल प्रकाशन, तेनुघाट, बोकारो

मूल्य : 150 रू (अजिल्द), 250 रू (सजिल्द)

 

  • केशव मोहन पाण्डेय

संपादक,सर्वभाषा त्रैमासिक

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