गाँव-गिरांव के मड़ई से आध्यात्म के शिखर का अनूठा कवि- अनिरुद्ध

पुरूबी बेयार से रसगर भइल गँवई सुघरई के सँवारत, ओकरे छटा के उज्जर अंजोरिया में छींटत-बिदहत कविवर अनिरुद्ध के गीत आ कवितई अपना तेज धार में सभे पाठक आ श्रोता लोगन के बहा ले जाये के कूबत राखेले। अनिरुद्ध जी के गीत आ कवितई अपना स्पर्श मात्र से पथरो पर दूब उगावे लागेले। फेर कतनों नीरस मनई काहें ना होखों, ओकरा के सरस होखे में देर ना लागे।जवने घरी भोजपुरी गीत भा कविता मंच पर ले जाइल, उपहास करावत रहे, ओही घरी अनिरुद्ध जी अपने गीतन से हिन्दी काव्य मंचन भोजपुरी के प्रतिष्ठे भर ना दिलववलें बलुक भोजपुरी कवितई के मंच के जरूरी हिस्सा बनावे में कवनों कोर-कसर ना रखलें। अनिरुद्ध जी के गीत भा कविता समकालीन कवनों भाषा के गीत भा कविता से बीस ना रहे त ओनइसो ना रहे। हिन्दी के बड़-बड़ साहित्यकारन के सोचे आ ई कहे के मजबूर कर देलन कि ‘आजु भोजपुरी साहित्य कवनों दोसरा भाषा का साहित्य से कमतर नइखे।’ गीत के आपन एगो अनूठी दुनिया होले जवन अमर बेल लेखा हर काल में फूलत-फरत रहेले, लोग ओकरा संगे थिरकत रहेला। कुछ-कुछ भा ढेर अइसने कुछ अनिरुद्ध जी के गीतन का संगे होत रहे, लोग उनुका गीत सुनते अपना के भुला जात रहलें।

अनिरुद्ध जी के जनम सारण जिला के गंडक नदी के किनारे बसल एगो गाँव डीही में भइल रहे। लइकई से लेके पूरा जिनगी गांवे में बीतल आ नोकरियो के बेरा गाँवे ठीहा-ठेकाना रहे। अइसने में खेती-बारी,मड़ई-छान्ह, गोरू-बछरू, गाय-भइस आ गँवई मन-मिजाज के जवन सुख-दुख देखले-जीयलें, उहे उनुका रचना के अंग बन गइल। ओकरे परतोख देत कवि के कहनाम बा-

 

राह उ गरिया गावे रे,

गाँव बेअरिया गावे रे।

 

अनिरुद्ध जी गाँव-गिरांव में रचल-बसल आ ओही के जीये वाला कवि बानी। उनुके कविता गाँव के ओह हर चिजु से जुड़ल बा जवन गँवई जिनगी के प्रतिबिम्बित करेला। रउवों देखीं-

 

गदबेरा देखत मग मड़ई-मड़ई मइया

बन से सभ ग्वाल-बाल लौटे अब ले गइया

 

खेती-किसानी अनिरुद्ध जी के सांस में बसल रहल। मालिक कहि के उनुका गाँव के लोग उनुका के बोलावत रहलें आ उहाँ के सभे के सुख-दुख के सहभागियो बनत रहलें। एह बाति के उनुके घर का लोगन के संगे गाँव का लोग आ संघतियो लोग सकरले बा। अइसना में गाँवन में होखे वाला हर क्रिया-कलाप से जुड़ाव स्वाभाविक बा। ओह जुड़ाव में आत्मीयता त होखबे करेला संगही आध्यात्म के दर्शनों होखे लागेला। देखीं-

‘हरवाही में हलधर लौकें चरवाही में कान्हा’

गाँव के चित्रित अपना काव्य में अइसना ढंग के अनिरुद्ध जी कइले बानी कि पढ़वइया भा सुनवइया के मन अनासे अपना गाँव में चलि जाला। उहो ओह हर घटना के साक्षी बन जाला। एगो चित्र देखीं-

घंटी बाजल गउँवा जागल बटिया रहे पुकार

गोजी नाचे बछिया घुंघुरू बाजे गछिया पार

भोर किरिनियाँ रँगे नजरिया मनवा रँगलs प्यार

प्रान चोरवले उड़े चिड़इया थाके नयन निहार।

जब आउर जहवाँ गाँव के बात होखेला, उहाँ के मनई के जिनगी जिये के तौर-तरीकन के बात होखेला। ओह में जिनगी खातिर पानी के बाति ना होखे, सम्भव नइखे। गाँव में पीए खातिर पानी जुटावल पहिले बड़ समस्या रहल बा। एकरा ला गाँव के मेहरारून आ लइकिन के पानी जुटावे क दुरूह कारज करे के पड़त रहे। कुइयाँ, ईनार, नदी-नार से पानी लेके आवे के पड़त रहे। ओह मेहरारून के पनिहारिन कहल जात रहे। इहों बात अनिरुद्ध जी के लेखनी से बाचल नइखे। हमरा त ई बुझाला कि ई अइसन बात रहे जवना से अनिरुद्ध जी के पहिचान बनल। अपने पनिहारिन गीत का चलते अनिरुद्ध जी चरचा में अइलें। उहे गीत इनका पहिचान बन गइल। उनके पहिलकी किताब बन गइल। सौंदर्य बोध, बिम्ब आ अतिशयोक्ति के बरियार उदाहरण बन गइल। ओइसन बिम्ब आ चित्रण आउर कतहूँ ना मिलेला। रउवो देखीं-

दिल-दरियाव घड़ा में जीवन, घट में बहता पानी

घइला में नदिया के भर के उमड़ल भरल जवानी

अँचरा के सब पाल उड़वले, भुंइए नाव चलेला॥

अनिरुद्ध जी के एगो अइसन आउर परयास रहल जवना के चरचा बहुते जरूरी बा। भोजपुरी गीत भा कविता के एगो संकुचित दायरा से बाहर लिया के अइसन फ़लक देले बाड़न जवना पर आँख बरबस ठहर जाले। भोजपुरी गीत भा कवितई श्रिंगार से बहरे निकसे में भा ओकरा के बाहर निकालल अपना पैर पर कुल्हाड़ी मारे लेखा ढेर लोग बुझेला भा अगर ई कहल जाव कि टिकुली,साड़ी,कमरिया,नजरिया से बहरे झांकल लोग ना चाहेले बाक़िर अनिरुद्ध जी एह चीजु के तुरलें। एगो उदाहरण देखीं सभे-

चम्पई चुनरिया ऊ खेतवा के अरिया

लहरेला कुसुमी किनार।

चल-चल खेतवों से आवे पुकार

चल-चल आइल बा इहे तेवहार

झांझरवा झनन-झनन बोले॥

अनिरुद्ध जे के लेखनी देश से लेके श्रम, ऋतु आ भोर से लेके साँझ के संगे अध्यात्मों पर खूब चलल। उनुका लेखनी से कहीं कुंअर सिंह महिमामंडित भइलें त तुलसी, बाल्मीकी आ सूरदास के खातिर उनुकर नेह उमड़ल। लोकधुन में कृष्ण लीला के पिरोवे में अनिरुद्ध जी जरिकों ना पछुअइलें।एगो चित्र सोझा बा, देखीं-

झूलत कुंडल नील कमाल मुख,लट भँवरा घुँघराला

मोर मुकुट कर बेनु पीत पट, उर सोभे बनमाला

भाल तिलक छवि कामदेव उ देखत रूप लजाय।

ठुमुकत श्याम चलत रुन-झुन पग पैजनियाँ बजि जाय॥

भोजपुरी में आध्यात्म उहो कृष्ण बाल लीला पर बहुत कम कवि लोगन के लेखनी चलल बा। अनिरुद्ध जी के ‘कृष्ण बाल-लीला आ दोहावली’ एह खाली जगह के नीमन से भरले बा। आध्यात्म के ओह ऊँचाई पर पहुंचल बा जवना पर केकरो रस्क हो सकेला। एगो चित्र देखी-

नटखट करनी से अगुता के

ओखल बान्हे कन्हइया,

मइया, ओखल बान्हे कन्हइया॥

कृष्ण जनम आ उनुका गोकुल गमन के पारंपरिक सोहर से सजावल आ लोक कंठ तक पहुंचावल कमतर नइखे। अनिरुद्ध जी के एहु में महारत रहे। देखीं सभे-

सुपवा में लेइ के बलकवा

त बसुदेव जी चलि चले हे,

ललना,छछकल उमड़ल जमुनवा

निहारि के ठमक गइले हे।

जमुना के कइले परनाम,

बदन जल छींटी लेले हे,

ललना, उफनत नदिया हहाये

त, ठाढ़े पँवर गइलें हे॥

उनुका पुस्तक ‘कृष्ण बाल-लीला आ दोहावली’ में कृष्ण बाल लीला का बहाने अध्यात्म के कुल्हि बिन्दुअन के समेटत भोजपुरी साहित्य के भंडार में अइसन रत्न अनिरुद्ध जी दीहले, जवना के देखि-पढ़ के भोजपुरी साहित्य अघा गइल।

भोजपुरी साहित्य में ‘पनिहारिन’ से शुरू भइल जतरा गीतन के गाँव से होत ‘कृष्ण बाल-लीला आ दोहावली’ ले जा के ठहर गइल। उनुका ढेर साहित्य अभी प्रकाशन के बाट जोह रहल बा, जवन देर-सबेर भोजपुरी भाषा के भंडार भरबे करी। एकरे संगही उनुका चरन में आपन प्रणाम निवेदित करत हम अपने लेखनी के विश्राम दे रहल बानी।

 

  • जयशंकर प्रसाद द्विवेदी

 

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