भोजपुरी साहित्य : प्रकाशन अउर विपणन एगो गंभीर समस्या

भोजपुरी साहित्य के माध्यम लोक भाषा ह,जे समाज के देन ह।राजाश्रय के आभाव मे भी अपना भाषायी संस्कृति अउर लोक जुड़ाव के आधार पर साहित्य के क्षेत्र मे दमदार उपस्थिति दर्ज कर रहल बा।आज के ऐह आर्थिक अउर डीजीटल युगो मे प्रकाशन अउर विपणन के अभाव मे  भोजपुरी साहित्यकार घर के आटा गील कके आपन रचना समाज के आगा परोस साहित्य भंडार भर रहल बाड़न।ई सही बा कि कैलिग्राफी भारत के देन ना ह। ई त श्रुति अउर स्मृति के देश रहल हा।आपन याद के लेखनी मे बदलला पर अदभुत आनन्द महसुस भइल होई।पर आज लमहर सफर तय कईला के बादो किताब अनेको सँचार माध्यम दूरदर्शन, कमप्यूटर, इंटरनेट जइसन मशीनी हमला के झेल रहल बा।एकरा बावजूद भी किताबन के सामाजिक महत्व आईना के तरह साफ बा।फेर आजो भोजपुरी साहित्य के प्रकाशन अउर विपणन के समस्या काहे ?

हमरा समझ से एकर मुख्य कारण पाठक के अभाव बा।समाज में किन के पुस्तक पढ़े के वृत्ति आज भी ना के बराबर पावल जात बा।त प्रकाशक आपन धन काहे लगायी जब ओकरा बाजारे ना मिल पायी।आज भोजपुरी समाज के एगो बड़ आबादी मे किताब के पढ़े के चस्का मौजूद बा बाकिर आज ओहू में से अधिकांश आपन माई भाषा के किताबन के किन के पढ़े के स्थान प भेंट स्वरूप प्राप्त किताबे के पढ़ल चाहेला।ई घालमेल भोजपुरी साहित्यकार के किताब प्रकाशित करावे के मनोबल कतना दिही अउर कतना बाजार उपलब्ध करा पायी ई हम सबनी से

छूपल नइखे।मराठी, मलयालम अउर बंगला जइसन भाषायी संस्कृति के मातृत्व प्राप्त किताबन के बिक्री हिन्दी पुस्तकन से भी ज्यादा बा ओकर कोई अउर कारण नइखे बल्कि माई भाषा के किताब पढ़े के अधिक चस्का बा,खरीद के पुस्तक पढ़े के रिवाज बा।

आज हमनी के पच्चीस करोड़ आबादी वाला भाषा के तगमा लटकवले चल  रहल बानीं जा पर  कवनो लेखा पास में नइखे कि देश,विदेश अउर राज्य में कवगो संस्थान/प्रकाशक/व्यक्ति माई भाषा के प्रकाशन खातिर आगे  आईल बा।एगो डच उपन्यासकार के उपन्यास के डेढ़ करोड़ के आबादी वाला नीदरलैंड में सात लाख प्रति बिक जाला।अरब लोगन के देश मे हिन्दी लेखकन के प्रकाशक एक हजार प्रति अउर पच्चीस करोड़ बोले वाला भाषा के साहित्य के साहित्यकार खुदे प्रकाशित करावे खातिर बाध्य बा उहो सैकड़ा मे आपन थाती संयोगे अउर बाँटे खातिर।

एक बात अउर की पाठक के रूची के स्थिरिकरण एगो सांस्कृतिक बौद्धिक प्रक्रिया हऽ।एह से ओकरा से अलगा हट के कवनो आग्रह साहित्य के शक्ति अउर पाठक के क्षमता दूनों के अपमान हऽ।एकरा के समझे के होई अउर पाठक के माँग के अनुरूप साहित्य के सृजन के ओर बढ़े के पड़ी।साहित्य के उद्देश्य सामाजिक संप्रेषण होला एह मे कवनो मतभेद के गुंजाइश नइखे।साँच पूछल जाव त साहित्य के रचना ‘स्वान्तःसुखाय ‘ खातिर ना  ‘ स्वान्ततभः शान्तेय ‘खातिर होखे के चाही।हमनी के स्वीकार करे मे हिचक ना होखे के चाही कि आज भी भोजपुरी साहित्य के अधिकांश रचना ‘ स्वान्तःसुखाय ‘पर केन्द्रित रह जा रहल बा।पाठक से ना जुड़े के एगो इहो बरियार कारण बा।

साहित्य के सब दिन से परिवर्तनकारी भूमिका रहल बा आ एही से साहित्य प्रगतिशील होला जे लोक जुड़ाव के कारण बनेला।ऐकरा खातिर हमरा समझ से साहित्य के संकीर्णता के तंग गली से बाहर आ के व्यापक मानस के चित के अनुरूप रचना परोसे के होई।डीजीटल युग मे प्रकाशन तनिक  गति जरूर पकड़ले बा परंतु बिक्री के स्थिति मे सुधार नइखे पावल जात।साहित्य के स्तरीय सृजन के बढ़ावा देल आज आपन समाज के काम बा।तुलसी, कबीर के साहित्य के भाषा कवनो अनुसूची मे शामिल ना रहे पर ओकर एक – एक पंक्ति/ दोहा समाज/लोक के देलस उहे आज ओकरा स्थापित होखे अउर प्रतिष्ठा के कारण बा।माई भाषा के बढ़ंती खातिर एकरा के आज मूल मंत्र बनावे के पड़ी।डा. रामजन्म मिश्र भोजपुरी भाषा के मान्यता के आंदोलन से जुड़ल संस्थानन के साथे साहित्यिक संस्थान से भी बार – बार अनुरोध करत रहल बाड़े कि साहित्य के समृद्ध बनावे खातिर स्तरीय साहित्य के सृजन करत रहल जाय उहे माई भाषा के प्रतिष्ठित करे में काम आई।

युरोप मे श्रेष्ठ, लोकप्रिय अउर अवांछित साहित्य के बीच विभाजित रेखा खींचल बा।जनमानस भी ओकरा के समझेला पर भारत में आजतक हिन्दी मे भी एकर अभाव बा त भोजपुरी के बात एह विषय पर कइसे कइल जा सकेला।पर ई सोलह आना साँच बा कि क्लासिकल के आगे चलताऊ या समकालीन महत्वपूर्ण लेखन तरजीह ना पावे।स्तरीय साहित्य से प्रकाशक भी आजो के स्थिति में जुड़े से परहेज़ ना करे।वही स्तरीयता के असर ह कि तुलसी,कबीर, दिनकर, बच्चन, शेक्सपियर, मिल्टन, होमर अपान आपन क्षेत्र में  मील के पत्थर बन के साहित्य पथ में आलोकित हो रहल बाड़न।एकरो के नइखे भूलाये के।इहो स्वीकार करे में तनिको हिचके के ना चाहीं कि एक तरफ अशलीलता के लेके बवाल मचल बा उहे दुसरा तरफ अंदरे अंदर कुंठित अउर यौन असंतुष्टि के वर्जना के शिकार भी बा आदमी।ई दृष्टि गाँधी के सोच के निकट बा। गाँधी जी अशलीलता के कानुनी सेंसर के खिलाफ रहन।उनकर कहनाम रहे कि समाज अपने अशलील अउर सुपाच्य साहित्य में फरक करे के तमीज राखेला।अगर नइखे त ई वृत्ति विकसित होखे के चाहीं।हलाकि गांधी जी के ई  विचार अस्सी साल पुरान ह पर हमरा नजर मे आजो एकर प्रासंगिकता कम नइखे।ओकरे नतीजा बा कि आज माई भाषा में एह काम के अंजाम दे रहल बा आखर,पूरवा, रंगश्री जइसन संस्थानन  के नाम लिहल जा सकेला अउर आगे ओकर असर साहित्य अउर समाज पर भी नजर आई।

आज भोजपुरिया समाज कवनो क्षेत्र में जब पीछे नइखे त भोजपुरी साहित्य के अपनावे अउर बढ़ावा देवे में काहे पीछा रही।जब ई बात समाज में आ जाई त प्रकाशक अउर बाजार भोजपुरी साहित्य के मिल जाई।साहित्यकार के भी बाध्यता होई कि जन भावना के कद्र करत स्तरीय साहित्य समाज के सोझा रखस।।जेकर नतीजा माई भाषा के समृद्धि के रूप मे आई।एही से चौधरी कन्हैया प्रसाद सिंह कह गइल बानीं कि

 

“गोर ना शरीर रही, खेत बाग नाहिं रही

भोजपुरी खातिर करब रही ऊ कहानी मे।”

 

जय भोजपुरी।

 

  •        कनक किशोर

राँची

 

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