लोकउकितन में खेती के बात

भारतीय सभ्यता में जीव के उत्पत्ति, बढ़वार आ विलयके सिलसिला में अन्न के अहमियत के पहचान असलियत के अनुभव के आधार प बा । तैत्तिरीयोपनिषद्(आनन्दवल्ली, दूसरा अनुवाक्) के कथन ह कि पृथिवी के आसरे जतिना जीव बाड़न ऊ अन्ने से पैदा होले, जीएले आ अंत में ओही में बिला जाले- “अन्नाद्वै प्रजाः प्रजायन्ते । याः काश्च पृथिवीं श्रिताः । अथो अन्नेनैव जीवन्ति । अथैनदपि यन्त्यन्ततः ।”अन्नके उपज में बढ़ोतरी खेती के बेहतर प्रबंध के जरियहीं संभव ह ए से भारतीय सभ्यता में खेती के बहुत अधिक प्रमुखता दीहल गइल । ई अर्थ-बेवस्था के मजगूती के सबसे सरेख साधन रहल ह । खेती के हालात में चौतरफा बदलाव आ लाख चढ़ाव-उतार का बादो आदमी के जिनिगी में एकर महत्व में कमी के कल्पनो ना कइल जा सके । ‘कृषिपराशर’ में खेती-बारी के महातम बतावत कहल गइल बा किअन्ने प्राण ह, अन्ने बल ह, अन्ने सरबस मकसद के साधन ह, देव-असुर चाहे मानुस सभ अन्ने के उपजीवी हवें । अन्न फसिले से उपजेला आ बेगर खेती फसिल ना हो सके, ए से सभकुछ छोड़के जतन से खेती करे के चाहीं – “अन्नं प्राणा बलं चान्नमन्नं सर्वार्थसाधनं । देवासुरमनुष्याश्च सर्वेचान्नोपजीविनः । अन्नं हि धान्यसञ्जातं धान्यं कृष्या विनानच ।तस्मात् सर्वं परित्यज्य कृषिं यत्नेन कारयेत्(कृ०प०, प्रास्ताविक ६-७)।”

भोजपुरी इलाका गंगा आ सहायक नदियन के समतल मैदानी भाग में फैलल बा जवन खेती के नजरिए सबसे बड़ आ संपन्नइलाका ह, ए से एहर हरसांस्कृतिक बेहवार में खेती-बारी के सोन्हगंधी पसराव चौगिर्द महसूस कइल जा सकेला। एने लोकमन में सँइतल एह अवधारणा के नकारे के कवनो आधार नइखे जे गिरहस्थ के जिनिगी ‘ग’ अच्छर में सिमटल पड़ल बा, गाय, गोरू, गरुआरी, गोरस, गोबर, गोंइठा-गोहरा से लेके गमछी, गोजी, गँड़ासी, गैंती, गोड़ाई, गतान,गहूँ, गँड़ेरी, गाँव-गिराँव वगैरह केगझिन गिरहफाँससे ऊ मुक्त ना हो सकस। जरूरी भा मजबूरी, जीए के आधार खेतिए-बारी ह । ‘उत्तम खेती, मध्यम बान, निखिध चाकरी, भीख निदान(-घाघ)’ के सूत्रकथन से के परिचित नइखे? खेती त का, सरबस जीव-जिनिगी बुनियादी तौर प बरखा के आसरे ह- ‘वृष्टिमूला कृषिः सर्वा वृष्टिमूलं च जीवनं (कृ०प०, वृष्टिखंड- १)’, ए से पहिले जतन से बारिश के ज्ञान करे के चाहीं- तस्मादादौ प्रयत्नेन वृष्टि ज्ञानं समाचरेत।’ मौसम-विज्ञान आ संचार के हेह उठानकाल में बात बहुते आगे बढ़ चुकल बा ए से मौसम के मिजाज के सटिक अनुमान संभव बा । पारंपरिक तौर प जुग-जुग के अनुभव से बारिश के लेके ढेर लोकउकित बाड़ीसन जवन दीरघकाल तक किसानी के संबल बनल रहलीसँ । अजहूँ ले एन्हनि के प्रासंगिकता चुकल नइखे । एह संबंध में कहाउतिन के भरमार बा। खेती-बारी से संबंधित कहाउतिन में अधिकतर ‘घाघ’ के बाड़ीसँ जेकर सटीकता प आजु ले कवनों सवाल ना उठल। कुछ बानगी-

– “असाढ़ मास आठै अँधियारी, जो निकले चंदा जलधारी।”

“चंदा निकले बादर फोर साढ़े तीन माह बरखा के जोर।”

[आसाढ़ी अठिमी के अन्हरिया छइले होखे आ बादर के चीर के चान निकल वे त अगिला तीन माह बारिश

के अच्छा प्रभाव रही।]

– “आदि न बरसे आदरा, मध्य न बरसे मघ।

  अंत न बरसे हस्त, का करीहें गिरहस्त?”

[शुरुआती अदरा, मधे मघा आ हथिया के अंत में बारिश ना होखे त गिरहस्त बेचारा का करस?]

– “आवत आदर ना कियो, जावत दियो न हस्त।

एही में दुन्नो गइल, पाहुन आ गिरहस्त।”

[हिंहा ‘आदर’ आ ‘हस्त’ में यमक बा। चढ़ते अदरा आ उतरत हथिया नछत्तर में बरखा ना होखे त गिरहस्त

चउपट होखिहें। अइले सनमान ना दिहल जाय आ बिदाई में कुछ हाथ गरम ना कइल जाय त पाहुनों के

गइले बुझीं।  ]

– “आसिन मासे बहे ईसान,थरथर काँपे गाय किसान।”

[कुआर में पुरुब-उत्तर कोन के हवा बहे त बरखा आ हवा में ठंडक बढ़ी।]

– “उगे अगस्त बन फूले कास,अब नइखे बरखा के आस।”

[अगस्त तारा उगे लागे आ कास में फूल दिखाई दे त अब बरखा के कवनों उमेद नइखे।]

– “जेठ उतरती बोले दादर।कहें भड़री बरसे बादर॥”

[उतरत जेठे मेंढक बोले, त जल्दी बरखा होखी।]

– “एक बून जल चइत चूवे,लाखन बून सावन के मूवे।”

[चइत में थोरिको बरखा हो जाय त ओकर लखगुना कमी सावन में जरूर होखी।]

– “करिया बादर डरावना, भूअर बरिसनहार।”

[करिया बादर महज भय पैदा करेलें, भूअर बादर बरिसे वाला होलें।]

– “कातिक बारह मेघा बरसे,सो मेघा आसाढ़े बरसे।”

[कातिक के बारहवीं के जवन बादर बरिसेलें उहे आसाढ़ो में, मतलब बरखा के परिमान उहे होला।]

– “जब बहले हड़बड़वा कोन,

तब लादे बनिजरवा नोन।”

[बउखल अस कोनसिया हवा बहे त बरखा के संभावना खीन होखे से नीमक के तिजारती सक्रिय हो

जालें।]

– “जो हरि होइहें बरिसनहारा, का करि पइहें दखिन बयारा।”

[ईस्सर बरिखे प उतारू होखस त दखिनहिया हवा का कर पाई?]

– “तीतर बरनी बादर, बिधवा काजर रेख।

 ई बरखी ऊ घर करी, ए में मीन न मेख।”

[तीतर-बरनी बादर होखे आ बिधवा आँखि में काजर काढ़े त बुझीं कि ई बरखी आ ऊ भतार करी, ए में

कवनो मीनमेख नइखे।]

– “पुरवा में पछिया बहे, हँसि के नार पुरुस से कहे।

कहे घाघ हम करब बिचार, ऊ बरसी ई करी भतार।”

[पुरवा नछत्तर में पछिया बहे आ औरत कवनो मरद से हँसि-हँसि के बतियाय त बुझीं कि ई बरखी आ

ऊ भतार करी।]

– “बादर ऊपर बादर धाबै।कह भड्डर जल आतुरआबे॥

[बादर प बादल चढल दउरें, त बकौल भड़री हाली पानी बरसी।]

– “मंगरवारी होय  दिवारी। हँसे किसान रोवे बैपारी।।”

[मंगवार के दियारी होखे त नीमन बरखा से किसान खुश आ बैपारी उदास होलें।]

– “माघे ऊखम, चइते जाड़, पहिला बरखा भरल ताल ।

घाघ कहे कुछ होनी होय, कुआँ के जल से धोबी धोय।।”

[माघ में उमस आ चइत में जाड़ा लागे, पहिली बारिश में आहर-पोखर भरि जाय त घाघ के कहनाम कि

अनहोनी होई, बरखा के अभाव में धोबी के कपड़ा धोए खातिर कुआँ के सहारा लेवे पड़ी।]

– “मोरपंख बादर उठे, राँड़ी काजर रेख।

ऊ बरसे ई घर करे, या में मीन न मेख (भँड़ुरी)।”

[मोरपंखी बादर घेरे आ राँड़ गोसा काढ़े त एह बात में संदेह नइखे कि ई बरखी आ ऊ घर करी।]

– “लाल, पीयर जब होखे अकास, तब नइखे बरसा के आस।”

[आकाश लाल-पियर बरन के लागे त बारिश के संभावना नइखे।]

– “सावन शुक्ला सप्तमी, छिपके उगे भान।

कहे घाघ घाघिन सुनऽ, पर्वत रोपऽ धान।।”

[सावन अँजोरिया पख के सतमी के बादर में लुकाछिपी करत चान निकले त बरखा अतिना होई कि

पहाड़ो प नीमन धान होई।]

– “सावन शुक्ल एकादशी, घन गरजे अधरात।

तू जा प्रीतम मालवा, हम जाईं गुजरात।।”

[सावन अँजोरिया पख के सतमी के अधरतिया में बादर गरजे त बरखा ना होई, खेती के आस छोड़

जीविका खातिर अनते (मालवा, गुजरात) गइल ठीक रही।]

– “सूकरबारी बादरी, रहे सनीचर छाय।

डंक कहे सुन भड्डरी,बिन बरिसे ना जाय।।”

[शुक्रवारके बादर उठे आ सनीचर तक छाइल रहे त डंक के भडुरी से कहनाम कि बिना बरिसे ना जाई।]

मौसम के अलग-अलग रंग-मिजाज के आगामी खेती प पड़े वाला असर के अंदाजा जरूरी ह । ई ज्ञान फसिल के बचाव, एह प्रति सजगता आ आइंदे के तैयारी खातिर बड़ काम के चीज ह । कहाउति ऊ जरिया रहलि जवन जुग-अनुजुग के अनुभव आ जानकारी के आम-जन तक मुँहामुहीं चहुँपावत रहलि-

– “अगहन बरिसे टून, पूस बरिसे दून।

माघ बरसे सवाई, फागुन बरसे गँवाई।”

– “अदरा गइल तीनों गइल, सन साठी कपास।

हथिआ गइल सभ कुछ गइल, आगिल पाछिल चास।”

– “अदरा धान पुनरबस पैया,गइल किसान जे बोय चिरैया।”

– “आइल आसाढ़ त भुँइ भई सँवरी,

सैंया तुम जोत लेहू चारि बिगहा अवरी।”

– “आइल चइत सुहावन, फूहर भइल छुड़ावन।”

– “एगो पानी बरिसे स्वाती, कुरमिन्ह पेन्हे सोना-पाती।”

– “चढ़ते बरिसे आदर, उतरत बरिसे हस्त।

बीचे बरिसे माघा, चैन करे गिरहस्थ।”

– “चना चित्तरा चौगुना, स्वाती गोहूँ होय।”

– “चितरा बरिसे माटी मारे, आगे भाई गेरुई के कारे।”

– “जब सैल खटाखट बाजे, तब चना खूब ही गाजे।”

– “जो बरसे पुनरबस स्वाती, चरखा चले ना बोले ताँती।”

– “रोहिनी रवे, मृगशिरा तवे, कुछ दिन अदरा जाय।

घाघ कहे घाघिन से, स्वान भात ना खाय।।”

‘कृषि पराशर’ में हवा के बहाव के दिशा के आधार प बरखा के मात्रा के अनुमान कइल गइल बा-

“सौम्यवारुणयोर्वृष्टिरवृष्टि पूर्वयाम्ययोः । निर्वाते वृष्टिहानिः स्यात्संकुले संकुलं जलम् (वृष्टिखंड- २२)।।” [उत्तरहिया, पछिमाही हवा बरखा आ पुरवैया भा दखिनहिया बरखाहीनता के सूचक ह ।] अब हवा के बहाव प केकर कस चलेला? एह तरह के छोट-बड़ कारक खेती में असमंजस पैदा करबे करिहें, ए से खेतीकाज थोड़े छोड़ी केहू? बाकिर मानसिक रूप से ए बदे तैयार रहे के चाहीं-

-“कतिनो खेत बना के जोतीं, एक दिन दखिनहिया लागी।”

– “सावन पछिया भादो पुरवा, आसिन बहे इशान।

कातिक मासे सींक न डोले, कहवाँ रखब धान।।”

खेती-बारी के काम मिहनत के ह बाकिर ईहो तय बात ह कि उत्पादन आर्थिक खुशहाली के आधार ह आ उत्पादन के आधार श्रम । बेगर बेना डोलवले जब हवो नइखे भेंटे के त श्रमहीन उत्पादन के संभावना कहाँ से कइल जा सकेला? खेती-बारी खातिर मेहनत का संगे उचित देखभाल जरूरी ह- “फलत्यवेक्षिता स्वर्णं दैन्यं सैवान्यवेक्षिता (-कृषिखंड- १)” – मतलब किदेखभाल के खेती सोना उपजायी आ अलगरजू के खेती गरीबी। खेती कम होखे मिहनत सवाई त रामजी के दया से कवनो बात के टोटा ना पड़ी- “खेती त थोरिक करेमिहनत करे सवाय।राम चहें वही मनुष केटोटा कभी न आय॥एक बात अउ, ऊ ई कि खेती-गिरहस्थी के काम खुद करे ना कि आन के मत्थे डाल दे- “खेती पाती बीनती औ घोड़े की तंग। अपने हाथ सँवारिए लाख लोग हो संग (-घाघ)।। पशुहित, खेत के लगातार देखभाल, बीया के संरच्छा, आलसहीनता से युक्त खेतिहर अन्न से भरल-पूरल होके कबो दुख ना पावे- “गोहितः क्षेत्रगामी च कालज्ञोबीजतत्परः। वितंद्रः सर्वसस्याढ्यः कृषको नावसीदति (-कृषिखंड- ५)” ।।” आगे के कहाउतिन मेंएही बातन केअलग-अलग ढंग से कहल गइल बा-

– “असकति नीन किसाने नासे, चोरे नासे खाँसी।

आँखे कींची बेसवा नासे, मिरगी नासे पासी (-घाघ)।”

[असकत आ नीनि किसान के, खाँसी चोर के, आँखि के कींची बेसवा के आ मिरगी के रोग पासी के

बिनाँस क देलें।]

खेती, बेटी, गाभिन गाय, जे ना देखे ओकर जाय।”

[खेती, बेटी आ गाभिन गाय ई तीनों निरंतर देखभाल के बिना बरबाद हो जइहें।]

परहथ बनिज संदेसे खेती ।बिन बर देखे ब्याहे बेटी ॥

द्वार पराये गाड़े थाती।ई चारो मिल पीटे छाती(-घाघ) ॥

[दोसरा भरोसे व्योपार करेवाला, सनेसा प खेती करेवाला, बिना वर देखे बेटी ब्याहे वाला आ दोसरा दुआरे

घरोहर गाड़ेवाला, ई चारो छाती पीट केसिर धुनेलें।]

– “बाढ़े पूत पिता के धरमे, खेती उपजे अपने करमे(-घाघ)।”

[पिता के नीमन करम से पूत केउन्नति आ खुद के श्रमसे खेती के उपज होखेला।]

– “अनकर भइया आन रोपइया, दीहें धान कि पैया।”

[बात सवाली मुद्रा में बा, दोसरा के भाई का धन दी? पाई-वाई के मदद भेंट जाय ओतिने जादे बा। ओही

तरे दोसर खेती करेवाला (बँटाईदार) धानदी कि खँखड़ी, ई सोचे जोग बा।]

– “अरधी मेहरी, बटइया खेत।”

[अरधी (जवन अगते दोसर मरद के बिअहुता रहल होखे) औरत आ बँटाई के खेती के का एतवार?]

निरालस का संगे समय के नजाकत के पहिचानो ओतिने जरूरी ह। सुस्त आ बेपरवाह किसान के ईहे फितरत ह कि सावन में ससुरार अगोरी, भादो में पूआ चाँपी, बाद में खेते-खेते पूछत डोली कि तोहार कतिना पैदावार होखल? –“सावन सुत्ते ससुरघर, भादो खाए पूआ। खेते-खेते पूछत डोले तहरे केतिक हुआ(-घाघ)।”

खेती में खेती के औजारन के दुरुस्त आ उपयुक्त होखल बहुत महत्वपूर्ण ह। हालांकि आज के जुग में पारंपरिक औजारन के सरूप में आमूलचूल बदलाव आ चुकल बा जहाँ मशीनीकरण के असर साफ दिखाई देता। कुछ दशक पहिले तक हर-बैल, हेंगा-पट्टा, खुरपी, कुदारी, खंती-गैंती खेत जोते आ माटी के भुरभुरा भा नरम करे के प्रमुख खेती के साधन रहन, अबखेतजोतवा(ट्रैक्टर),जोतहर (पावर टिल्लर), घुरदंती(रोटावेटर), बिजबोअनी (सीड ड्रील), खेतिहर (कल्टीवेटर) आदि उनकर जगह लेत जात बाड़ें। कटनी-दँवनी के काम में कटाई मशीन (हार्वेस्टर), फसिल- कटनी(क्राप कटर), दाँवनी (थ्रेसर) वगैरह के इस्तेमाल बढ़ गइल। सिंचाई के पारंपरिक साधन रहट, कूँड़, दोन, सएर, हत्था, चाँड़, मोट विलुप्त हो चुकलन, इनके जगह दमकल (पंपिंग सेट),अभिवर्धी दमकल (बूस्टर पंप),बौछारी बनूख (रेनगन), टपकौवा सिंचाई साधन (ड्रिप इरिगेशन सिस्टम), बौछारी (स्प्रिंकलर), जल-प्रवाह नपनी, मृदा-संवेदी आ ना जाने का का के भरमार बा। कहाउति त पुरनके बाड़ीसँ बाकिर एन्हनि के उल्लेख खेती में औजारन के भूमिका के हाले-बयान बदे कम जरूरी नइखे। कुछ बात बाते भ ना होखे, तेकरा बाद कवनों बोधन, चेतावन के खास दरकार ना रहे। अब- “ढुलमुल बेंट कुदारी अउरी हँसी के बोले नारी” के जथारथ ज्ञान के बाद ई कहे के का जरूरत जे, ई दूनों से बाँचेके चाहीं,खतरा हो सकेला। हँ, ई उपाय हो सकेला कि एन्हनि के पच्चड़ दुरुस्त क लिहल जाय। सपूत के बढ़ईगीरी जानहीं पड़ी- “बेटा होय, बढ़इकम (बढ़ई-कर्म) जाने।”जोते के साधन पर्याप्त होखे- “एक हर हतेया, दू हर काज,तिन हर खेती, चारि हर राज।”खेती के सारा सरंजाम रहे तबे किसानी-

“बाध, बीया, बेकहल, बनिक, बारी, बेटा, बैल।

ब्योहर, बढ़ईे, बन, बबुर, बातसुनो हे छैल!

जा बकार बारह बसे,से पूरन गिरहस्त।

अउरिन के सुख दे सदाआप रहे अलमस्त।”

[बाध= मूँज के रस्सी, बीया= बीज, बेकहल= ढाँक के जरिके छाल), ब्यौहर= सूद पर उधारी, बारी= फुलवारी]

खेत चक होखे, जल-संरच्छन के उपाय होखे, भूसा-चारा के इंतिजाम होखे, दक्ष बढ़ई नगीच होखे, घर के मलिकाइन निपुन होखस, चयनित-उपचारित बीज होखे, बएल बगौध नस्ल के होखस, हरवाह हुसियार होखस, बेटा सही मायने में बेटा होखस जे बेअर्हवले काज क लेस-

“बिगहा बायर होयबाँध जो होय बँधाये।

भरा भुसहुला होयबबुर जो होय बुवाये।

बढ़ई बसे समीपबसूला बाढ़ धराये।

पुरखिन होय सुजानबिया बोउनिहा बनाये।

बरद बगौधा होयबरदिया चतुर सुहाये।

बेटवा होय सपूतकहे बिन करे कराये।”

असल किसान उहे जे कुदी-खुरपी हाथ में आ लाठी-हँसुआ साथ में रखे- “बाँध कुदारी खुरपी हाथ।लाठी हँसुवा राखे साथ॥”जवन किसान भिर बबूर के पाथा, सिरिस के हर, हरियानवी बरध होखे उ किसान पनडाली लगा के चउपड़ खेल सकेला, याने आनंद से रह सकेला-

“कीकर पाथा सिरस हल, हरियाने के बैल।

लोधा डाली लगाय के, घर बइठे चउपड़ खेल।।”

सफल खेती बदे खेत के बढ़िया जोताई आ सिंचाई के महिमा के बखान वैदिक काले से मिलेला। बुद्धिगर लोग धरती के जोतेलें-‘सीरा युञ्जन्ति कवयो’ (अथर्व, ३,१७.१), जुआ फैला के हर जोते आ भलीभाँति तैयार जमीन में बीया बोए- ‘युनक्त सीरा वि युगा तनोत कृते यौनो वपतेह बीजम्’ (अथर्व, ३,१७.२), तेज फार से जमीन के खोदाई करे- ‘शुनं सुफाला वि तुदन्तु भूमिं’ (अथर्व, ३,१७.५), जवन जल आकाश में बा ओकर बरखा के उपयोग से जमीन के पटवन करे- ‘यद्दिवि चक्रथुः पयस्तेनेमामुप सिञ्चतम्’जइसन उक्ति से वैदिक ऋषि जोताई के महत्व के नीमन से समुझवले बाड़ें। भोजपुरी लोकउकितन में बोवाई के अगते जमीन के जोताई आ के लेके बहुत कुछ कहल गइल बा, कुछ मिसाल-

– “जे हर जोते खेती वाकी,अउरी ना त जाकी-ताकी (-घाघ)।।”

[जे हर जोते खेती ओकरे, ना त जेकर-तेकर।]

– “जोते खेत घास ना टूटे, तेकर भाग्य सँझहिए फूटे (-घाघ)।”

[खेत जोते आ घासो ना टूटे त ओकर नसीब फूटल।]

– “कहा होय बहु बाहें, जो ना जोते थाहें(-घाघ) ।।”

[ढेर जोतले का जे गहिरोर ना जोताय?]

– “खेत बेपनियाँ जोतऽ तब, ऊपर कुआँ खनावऽ तब (-घाघ)।”

[निरस खेत तबे जोत जब कूप खना ल।]

– “जब बरिसे त बान्ह कियारी, बड़ किसान के हाथ कुदारी (-घाघ)।”

[बरिसते कुदारी उठाव आ पानी संचय क ल, बड़ किसान के कुदारी उठला रहेला।]

– “थोरा जोते बहुत हेंगावे, ऊँच न बान्हे आड़।”

– “ऊँचे पर खेती करे, पैदा होखे भाँड़ (-घाघ)।।”

[गहिरोर ना जोते, खाली हेंगावे, आरियो ऊँच ना रखे आ ऊँचास प खेती करे त भाँड़ पैदा होखी।]

– “हर लगल पताल।त टूट गइल काल (-घाघ)॥”

[हर गहिरे धँसल त जानी कि काल प फतह।]

– “जोन्हरी जोते तोर-मरोर। तब ऊ डाले खोठिला फोर (-घाघ)।।”

[खूब उलट-पहट के जोतले मकई-मसुरिया अतिना होखी कि कोठिला कम पड़ जाई।]

– “करिया फूल न आइल पानी, धान मरे अधबीच जवानी (-घाघ)।”

[फूल करिया गइल, पानी ना पड़ल, धान मध जवानी में मुआर हो जाई।]

खेत में अनचाही घास के उगल ताज्जुब ना ह, उगबे करी, बाकिर ए प नजर ना दीहल जाय त मुख्य फसिल दब जाई। घास के अधिकाई उपज बदे हानिकारक ह, ए से निराई-गुड़ाई खेती के एक अनिवार अंग ह। घासन के अलग-अलग तासीर ह, कुछ जड़-बज्जर होलें, कुछ लरछुत, कुछ नाजुक, कुछ के त खादो के रूप में इस्तेमाल हो सकेला। घाघ के कहल ह कि राढ़ी काट के गहूँ, कुस उपाह के धान, गाँड़र सोह के जड़हन के नीमन पैदावार लीहल जा सकेला बाकिर जवन खेत में फुलही घास उपज जाय ऊ किसान के रोवा दी, ओमें कुच्छो ना उगी-

“रड़हे गेहूँ, कुसहे धान।गड़रा की जड़ जड़हन जान ॥

फुली घास रो देइ किसान,वहिमें होय आन का तान।”

निराई बदे पर्याप्त संख्याबल होखे- “तीनि खाट, दुई बाट, चार छावे छव निरावे।” निराई में नफासत से काम ना चली-

“पहिर खड़ाऊँ खेत निरावे, ओढ़ि रजाई घोंके।

 कहे घाघ ई तीनों भकुआ, बेमतलब के झोंके (-घाघ)।।”

– “सुथना पहिरे हर जोतेआ पोला पहिरि निरावे,घाघ कहे ये तीनों भकुवासिर बोझा ओ गाबै॥

ऊख जइसन फसल में त ई काम बेरि-बेरि करे पड़ी- “तीन कियारी तेरह गोड़।तब देखो ऊखी के पोर॥””

सिंचाई के नजरिए फसिल के दू प्रकार ह- अपटा आ सपटा। अधिकतर रब्बी के पैदावार में जियादह पानी के दरकार ना होखे, मौसम के अनुकूलता आ जमीन में मौजूद नमी से काम चल जाला। खरीफ सिंचाई के आसरे होला। अगते सिंचाईवाली खेती मुख्य रूप से मानसुनी बरखा के आसरे रहे। आहर-पोखर, नदी-कुल्या, कुआँ आदि रहन जवन बरखा से संचित भा भूजल स्रोत प निर्भर रहन। धरती प पानी के स्रोत त उहे बाड़न बाकी हेह वैज्ञानिक जुग में तकनीकीबिकास का चलते सबकुछ आसान भ गइल बा।पटवन के जरूरत आ उत्पादन प पड़े वाला असर के लेके कहाउतिन में जवन तथ्य बिखरल पड़ बा, घाघ के कथन में तेकर कुछ उदाहरण देखल जा सकेला। “सभे किसानी हेठी।अगहनियापानी जेठी॥” – निचोड़ ई कि अगहनी सिंचित खेती का आगू सभ किसानी ओछ। सब्जीवाड़ी के बुनियाद त पटवने हइए ह- “तरकारी ह तरकारी,या में पानी की दरकारी॥” याने तरकारी त तरावट के चीजे ह, एकर खेती में सिंचाई के दरकार जादे होला। धान, पान आ उखियारी त पानिए के चाकर हवें- “धान, पान, उखेरा,तीनों पानी के चेरा।” एगो अवरि कि “धान पान अउ खीरा। तीनों पानी के कीरा॥”

ई तथ्य ह कि माटी पउधन के जिनिगी के आधार ह। अँखुवा फूटे से ले के, बढ़ोतरी, शाखा-फैलाव, फूले-फरे सभ में माटिए जरिया ह, बाकिर हरमेसे माटी में पोसक-गुन समरूप ना होखे। एकर कमी से भरपूर उपज के उमेद ना कइल जा सके। ए से बेहतर उपज खातिर अतिरिक्त खाद-पानी के जरूरत होला। खाद के खास तौर प दू प्रकार ह- जैविक आ रासायनिक। भारत में हरितक्रांति के दौर में आन्हाधुन रासायनिक खाद के इस्तेमाल बढ़ल जेकर परिनाम ई कि शुरु में उपज त बढ़ल बाकिर बाद में माटी के उर्वरा शक्ति में कमी का संगे कइ तरे के नकारा असर देखल गइल। अब फिर बैताल ओही डाढ़े लटके बदे बेअगर बा। जैविक खेती के तेज जरूरत सगरे महसूस कइल जाता आ तेकर बिकास खातिर हर उपाय खोजल जा रहल बा। भारतीय पारंपरिक खेती के रीति में ई गुन अगते से मौजूद रहल ह। हिंहा खाद के मतलब प्रकृति में उपलब्ध पोसन-गुन वाली बस्तु से रहल। घाघ के कहल कि “खाद परे त खेत,ना त कूड़ा रेत।” खेती करे त खेत के खाद से पाट दे आ भरपूर अन्न संजो ले- “खेती करे खाद से भरे,सौ मन कोठिला में ले धरे।” जवन किसान के खेत में गोबर ना पड़ल उनुका के डँड़टूटे बुझीं- “जेकरे खेते पड़े न गोबर,ऊ किसान के जानीं दूबर।” गोबर के अतिरिक्त कइ तरे अताई-पताई नीमन खाद के काम करेलें, उनकर प्रयोग उपयोगी रही- “गोबर, चोकर, चकवर, रूसा,इनके छोड़े होय न भूसा।” मतलब कि गोबर, चोकर, चकवन आ अडूसा के पतई खेत में छोड़ले भूसा कम अनाज अधिका होला। खेत में गोबर के खाद का संगे, गू-गनउर, नीम के खरी डलले उपज दोगुना हो जाला- “गोबर मैला नीम की खली,यासे खेती दूनी फली।”घूर-गनउर आ गोबर के सरले अन्न पोढ़ाला-“गोबर मैला पानी सड़े,तब खेती में दाना पड़े।”

खेती के कुछ आम तौर-तरीका बाड़े जेकर ध्यान रखल हर किसान से लाजिमी बा-

आगे के खेती आगे-आगे, पीछे के खेती भागे-जोगे।”

“अगते खेती अगते मार, कहे घाघ से कबहुँ न हार।”

“अगहन दूना पूस सवाई, माघ मास घरहूँ से जाई।”

“आगे खेती आगे-आगे, पाछिल खेती भागे जोगे।”

“अदरा मास जे बोए साठी, दुख के मारि निकाले लाठी।”

“आगे गेहूँ, पाछे धान, वा के कहिये बड़ा किसान।”

“खेती करे बनिज के धावे,

अइसन डूबे थाह न पावे।”

“खेती करे साँझ घर सोवे।

काटे चोर माथ धर रोवे।”

“खेती धान के नास,

जब खेले गोसइयाँ तास।”

“खेती, पाती, बीनती अउ घोड़ा के तंग।

अपने हाथ सँवारिहऽ लाख लोग हो संग।”

“खेती-बारी, चाकरी औ घोरे की तंग,

अपने हाथ सँवारिय, तब जिउ रहे अनंद।”

खेती रहे बिदेसे जाय,

तेकर जनम अकारथ जाय।”

खेती के हजार गुर ह। निचोड़ ई कि जेकरा जूता सिलाई से चंडीपाठ तक के गुन आवत होखे ऊ एगो कुशल किसान हो सकेला। श्रम के अलावे हर विकट परिस्थिति के अनुकूल बनावे के कला उन्नत किसानी के बीज-सूत्र ह, जवन इन्ह लोकउकितन में समाहित बा। गिरहस्थी सुखी जीवन के आधार ह जेकर आदर्श रूप के बखानचाणक्य के एक नीतिकथन में मिलेला, तेकर भाव-उलथन ह-

“तिन्हके घर सुख चैन रहे

जहँ धीय सुधीय तिया सुमुखी।

भृत्य भरोसी इच्छित वित्त,

धनी अपनी रतिरंग सखी।

अतिथि सेव देव पूजन नित,

मधुर अन्न रस की जिवनारी।

बितत नित्य साधु की संगति,

जीवन धन्य उहे घरुआरी।”

                  (-चाणक्यनीति दर्पण, १२.१)

 

दिनेश पाण्डेय,

पटना।

 

 

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