नब्बे-पार मोती बीए लमहर बेमारी से जूझत आखिरकार 18 जनवरी, 2009 के सदेह एह लोक से मुकुती पा लेले रहनीं। किशोरे उमिर (1934) से संग-साथ देबे वाली जीवन संगिनी लछिमी सरूपा लक्ष्मी देवी पहिलहीं 1987 में साथ छोड़ि देले रहली। बांचि गइल रहे उन्हुका इयाद में बनावल ‘लक्ष्मी निवास’, जहंवां हिन्दी, भोजपुरी, अंगरेजी, उर्दू के एह समरथी आ कबो सभसे अधिका शोहरत पावेवाला कवि के पहिले आंखि आउर कान जवाब दे दिहलन स,फेरु अकेलहीं तिल-तिल टूटत,बिलखत-कलपत शरीर से आतमा निकलि गइल,संसा टंगा गइल।
1 अगस्त, 1919 का दिने उत्तर प्रदेश में देवरिया जिला के बरेजी गांव के मालवीय ब्राह्मण परिवार में बाबूजी राधाकृष्ण उपाध्याय आ माई कौलेसरा देवी के सपूत मोतीलाल उपाध्याय हालांकि आगा चलिके एम ए, बी टी, बी एड, साहित्य रत्न के उपाधि हासिल कऽ के इण्टरमीडिएट कॉलेज में प्रवक्ता (इतिहास) हो गइल रहनीं, बाकिर बी ए कइला का बादे साहित्य के हलका में अतना लोकप्रिय हो गइनीं कि ताजिनिगी उहांके नांव मोती का संगें बी ए तखल्लुस बरकरार रहल। उहां के आखिरी सांस ले कविता के जीयत रहनीं। हिन्दी में तेइस गो, भोजपुरी में आठ गो, उर्दू में पांच गो आउर अंगरेजी में तीन गो कविता-संग्रह देबे वाला मोती बी ए सही माने में भाषा-साहित्य-संस्कृति के मोती रहनीं। डॉ. रामदेव शुक्ल के संपादन में नौ खंड में मोती बी ए ग्रंथावली के प्रकाशन 2011 में दिल्ली के नमन प्रकाशन से भइल रहे। भोजपुरी में ‘सेमर के फूल’, ‘भोजपुरी सानेट’, ‘तुलसी रसायन’, ‘भोजपुरी मुक्तक’, ‘मोती के मुक्तक’, ‘बन-बन बोलेले कोइलिया’, कालिदास के ‘मेघदूत’ के भोजपुरी काव्यानुवाद नियर कृति देबे वाला मोती बी ए कबो कवि सम्मेलन में धूम मचवले रहनीं। भोजपुरी गीतन के सभसे पहिले फिलिम में जगह दियवावे वाला उहेंके रहनीं। हिन्दी आ भोजपुरी में रचल उहां के गीत जहवां जन-जन के जबान पर चढ़ल रहलन स, उहंवें पुरान फिलिमन में उन्हुकर गीत शोहरत के बुलंदी के छूके मील के पाथर साबित भइल रहे।
गिरावट आ क्षरणशीलता के एह बाजारवादी निठुर समयो उहां के डिगा ना पवले रहे आ सरलता, सहृदयता आउर मनुजता के प्रतिमूर्ति रहनीं मोती जी बीए। जवना घरी उहां के अखिल भारतीय भोजपुरी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष रहनीं, हमरा के सम्मेलन के महामंत्री बनावल गइल रहे। जब बइठकी में हिस्सा लेबे उहां के देवरिया से आईं, त वरिष्ठ गीतकार विंध्यवासिनी दत्त त्रिपाठी के घरे ठहरीं। हमहूं उहां पहुंचि जाईं आ खूब बतकही होखे, उहां के सम्मान में गोष्ठी आ एकल पाठो होखे।
हम जिज्ञासावश पुछले रहनीं, “ओह घरी, जब कवि सम्मेलन के मंच पर राउर आ डॉ. शंभुनाथ सिंह के चरचा खूब जोर पर रहे, एकाएक रउआं फिलिम में कब आ कइसे चलि गइनीं?”
मुंह में पान चभुलावत मोती जी ओह तथ के खुलासा करत कहले रहनीं, “ओइसे त मुंशी प्रेमचंद, प्रदीप, सुमित्रानंदन पंत, भवानी प्रसाद मिश्र, अमृतलाल नागर, भगवती चरण वर्मा, सुदर्शन, वृंदावन लाल वर्मा, नरेन्द्र शर्मा, नीरज, नेपाली, शैलेन्द्र, राही मासूम रज़ा नियर अनेक साहित्यिक हस्ती कवनो ना कवनो रूप में फिलिम से जुड़ल रहली स, बाकिर हमार जुड़ाव एकदम अप्रत्याशित आ अचानक भइल। भइल ई रहे कि पंडित सीताराम चतुर्वेदी के अध्यक्षता में बनारस में ‘प्रसाद परिषद्’ के एगो कविगोष्ठी में भाई शंभुनाथ जी का संगें हमहूं हाजिर रहलीं। जब ‘रूप भार से लदी तुम चली’ शीर्षक कविता के हम सस्वर पाठ कइलीं, त उहां मौजूद पंचोली आर्ट पिक्चर, लाहौर के मालिक पंचोली साहब आ निर्देशक रवीन्द्र दवे मंत्रमुग्ध हो गइलन आ अगिली फिलिम के गीतकार का रूप में हमार बहाली हो गइल। सन् 1944 से 1952 ले लाहौर आ मुंबई में रहिके हम फिलिम के गीत लिखलीं। प्रमुख फिलिम रहली स-कैसे कहूं, नदिया के पार, सुभद्रा, साजन, सिन्दूर वगैरह।
‘नदिया के पार’ के त उहां के मए गीत सुपरहिट रहलन स। फिलिम रहे हिन्दी के आ गीत रहलन स भोजपुरी के। हम सवाल कइले रहलीं, “सभसे पहिले ‘नदिया के पार’
हिन्दी फिलिम में भोजपुरी गीत डाले के बात रउरा दिमाग के उपज रहे आकि निर्माता के?”
आत्मबिसवास से भरल उहां के जवाब रहे, “हम लरिकाइएं से लोकभाषा के ताकत आ सामरथ के पहिचानत रहलीं। एह से हमहीं निर्माता-निर्देशक किशोर साहू पर जोर डालिके दिलीप कुमार-कामिनी कौशल अभिनीत ‘नदिया के पार’ खातिर सात गो भोजपुरी गीत लिखलीं। दूगो गीत के तनी मुखड़ा देखीं-‘कठवा के नइया बनइहे रे मलहवा कि नदिया के पार दे उतार-‘, ‘अंखिया मिलाके अंखिया रोवे दिन-रतिया हो, कहीं का बतिया, भूले ना सुरतिया हो तोहार-!’ हम ना खाली पहिलकी बेर भोजपुरी गीत के फिलिम में प्रवेश दियवलीं, बलुक ओकरा के स्थापितो कइलीं। जब फिलिम रिलीज भइल, त ऊ गीत जन-जन के जबान प रहलन स। फिलिम के नायक दिलीप कुमार ओह गीतन के पहिला बेर सुनिके झूमि उठल रहलन आ ओही घरी लोकभाषा के एगो फिलिम बनावे के दीढ़ निश्चयो कऽ लेले रहलन, जवन आगा चलिके ‘गंगा जमुना’ बनाके पूरा कइलन।”
हमरा मन में फेरु सवाल उठल रहे, “आठ-नौ बरिस ले फिलिम लेखन का बाद, जब रउरा गीतन के धूम मचल रहे, तबे रउआं फिलिम जीवन से संन्यास काहें ले लिहनीं?”
“ना-ना!” उहांके मूड़ी हिलावत कहलीं,” एकरा के संन्यास ना कहल जा सके। अपना स्वाभिमान के गिरवी राखे के शर्त पर हमरा फिलिम मंजूर ना रहली स। कतिपय बिंदुअन पर हम समझौता ना कऽ पवलीं आ गांवें आके श्रीकृष्ण इण्टरमीडिएट कॉलेज, आश्रम बरहज (देवरिया) में जुलाई, 1952 से इतिहास के प्रवक्ता नियुक्त हो गइलीं। सन् 1980 में सेवानिवृत्ति के बाद हम फेरु भोजपुरी फिलिमन खातिर कुछ गीत लिखलीं, जवना में ‘गजब भइले राम’, ‘चंपा-चमेली’, ‘ठकुराइन’ वगैरह फिलिम रहली स।”
“कविता में राउर रुझान अपने आप जागल आकि केहू के प्रेरना से?” हमरा प्रश्न प उहां के हठात् कहलीं, “हम हिन्दी के विद्यार्थी ना रहलीं, बस हाई स्कूल ले हिन्दी साहित्य पढ़ले रहलीं। फेरु हम कवि बने के होसला कइसे करितीं! बाकिर हमरा बचपने से सुर में गावे के सवख रहे। सुरीला गीतन के सुनिके सुननिहारन के नीमन लागल। तबे डॉ शंभुनाथ सिंह विद्यालय में अइलन। ऊ हमरा गांव के लगहीं के रहलन। उन्हुके कहला से हमहूं कविता लिखे लगलीं। ओही घरी महादेवी वर्मा के भाई मनमोहन वर्मा के संपादन में हस्तलिखित विद्यालय पत्रिका के शुरुआत भइल रहे, जवना में हमार पहिलकी कविता छपल रहे-
अरी सखि,घूंघट का पट खोल!
कली अभी प्रस्फुटित नहीं है,
मंद समीरन डोल रही है,
रस-परागयुत राग-सुरभि
बिखरा देना अनमोल–!
1938 ले बीए के पढ़ाई कइला तक कविता लिखलीं। फेरु क्रांतिकारी हो गइलीं। डेढ़ साल ले जेहल के सजाइयो कटलीं। सन् 1941 में एमए (इतिहास) के डिग्री मिलल, ओकरा बाद बीटी, साहित्य रत्न कइलीं। बीए आ एमए का बीचे रचल कविता मोती बी ए के लोकप्रिय बना दिहली स। नांव का संगें बीए लिखेवाला तीन गो साहित्यकार भइलन-बाबू श्यामसुंदर दास, संतराम आ हम। ओह घरी के कवि सम्मेलन से हमरा के खूब शोहरत मिलल रहे।”
जब कवि सम्मेलन के चरचा छिड़ल, त मोती जी के चेहरा प खुशी के भाव झलके लागल। हम उहां के कुरेदल चहलीं-“ओह घरी के कवनो यादगार कवि सम्मेलन के इयाद बा का?”
उहांके मुसुकी काटत कहलीं, “ओह घरी के अधिकतर कवि सम्मेलन यादगार होत रहलन स। सन् 1939 में बनारस के एगो कवि सम्मेलन आजुओ मन परत बा, जवना में ओह समय के नामी-गिरामी कवि-बच्चन,श्याम नारयण पाण्डेय वगैरह आमंत्रित रहलन। हम श्रोतन का बीचे लुकाके बइठल रहलीं। तलहीं काव्य-पाठ खातिर हमार नांव पुकारल गइल। हम अउरी लुकाए लगलीं, बाकिर संयोजक हमरा के पकड़िके उठा लिहलन। मंच पर ले जाइल गइल। जब गीत पढ़े लगलीं, त अतना वाहवाही मिलल कि हम खुदे चकित रहि गइलीं। खुद बच्चन जी उठि के शाबाशी देत हमार पीठि थपथपवले रहलन। गीत के पांती रहे-
सृजन, यह आह्वान तेरा!
वेदना में चेतना खो, अचल मूर्च्छित-सा रहा जो
शृंग उर से फूट निकला एक कल-कल गान तेरा,
सृजन,यह आह्वान तेरा!
फेरु एगो आउर गीत के मांग बेर-बेर होखे लागल रहे। तब हमरा ‘वह तुम्हारा मान मानिन’ गीत सुनावे के परल। सन् 1943 में सेठ आनंदीलाल पोद्दार के संयोजन में दूदिनी काव्य समारोहो के खूब इयाद आवत बा, जवना में सोना के मोहर लुटावल गइल रहे आ नेपाली, नीरज का संगहीं एह मोती बी ए पर भी सोना के मोहर के बरखा भइल रहे।”
बाकिर धनाभाव में मोती बी ए के खूब संघर्षो करेके परल रहे। ओह दिनन के इयाद करत उहां के कहनाम रहे-“छात्र जीवन में हम दर-दर के ठोकर खइले रहलीं, पत्रकारितो कइले रहलीं। दैनिक आज,संसार, आर्यावर्त, अग्रगामी जइसन पत्रन में सहायक संपादक रहलीं। जब एमए करत रहलीं, त ‘आज’ (बनारस) में रात के नौ बजे से भोर के चार बजे ले कबीरचौरा में पत्रकारिता कइलीं। उहां से छूटीं त एमए के पढ़ाई करीं। तनखाह के पचीस रोपेया में से पनरह फीस में, दू रोपेया भाड़ा में, चार रोपेया एक सांझि के भोजन में हरेक महीना खरच करत रहलीं आ बाकी के चार रोपेया में मए काम निपटावत रहलीं। बाकिर फांका करहूं में मस्ती रहे ओह घरी।
अपना कवना कृति से उहां के सभसे बेसी प्यार रहे? मोती बी ए के उद्गार रहे-“हम हिन्दी, भोजपुरी, अंगरेजी आ उर्दू में तीन दर्जन किताब लिखले बानीं। अंग्रेजी से शेक्सपिअर आ संस्कृत से कालिदास के काव्य कृतियन के हिन्दी आ भोजपुरी में काव्यानुवादो कइले बानीं। ‘लव एंड ब्यूटी’ में एकावन गो सानेट बा। आंसू डूबे गीत, बादरिका, पायल छम-छम बाजे, हरसिंगार के फूल, मधुतृष्णा, कवि और कविता, प्रतिबिंबिनी, अश्वमेध, कुछ गीत:कुछ कविता (सब हिन्दी कविता-संग्रह), सेमर के फूल, बन-बन बोलेले कोइलिया, भोजपुरी सानेट, तुलसी रसायन, मोती के मुक्तक (मए भोजपुरी कविता-संग्रह), रश्के गुहर, दर्दे गुहर (उर्दू काव्य) वगैरह हमार प्रिय कृति बाड़ी स।”
हमार अगिला सवाल फूटल रहे-“ओइसे त ‘समिधा’ पर उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान से ‘राहुल सांकृत्यायन पुरस्कार’, शिक्षा विभाग से आदर्श शिक्षक पुरस्कार, राष्ट्रपति पुरस्कार रउरा के मिलल रहे, तबो सरकारी पुरस्कार का बारे में राउर का नजरिया बा?”
एह पर उहांके दू टूक जवाब रहे-“दूरदर्शन, आकाशवाणी, सरकारी भा गैर-सरकारी पुरस्कार-सम्मान में हमार कवनो आस्था नइखे रहल। ई सब कुछ अपना लोगन के तुष्ट करे आ पइसा कमाए के चालबाजी ह-बस!
“आजु के साहित्यिक मंच का बारे में राउर खयाल? “सवाल सुनते उहां के बतवनीं-“पहिले के मंच सचमुच साहित्यिक मंच होत रहलन स। अब त सुनेवाला श्रोता, आयोजक, कवि- सभे बदलि चुकल बा। अब दक्षिणा के धियान अधिका रहेला आ कोशिश रहेला कि कइसे दोसरा के नीचा देखावल जाउ।”
“कहल जाला कि गद्य कवि के कसउटी होला। का रउओं गद्य लिखले बानीं? एने का लिखनीं रउआं?” चाह के चुसुकी लेत मोती जी जानकारी दिहनीं-“समय-समय पर हमहूं गद्य लिखले बानीं। गद्य के हमार किताब बा- ‘इतिहास का दर्द ‘। घनानंद, बोला, रसखान के पुस्तक के लमहर-लमहर भूमिका लिखले बानीं। एने आत्मकथा लिखत रहलीं, जवना के प्रकाशन देवरिया के पत्र में धारावाहिक रूप से होत रहे।”
हम दुखी मन से पुछनीं, “राउर विपुल साहित्यिक देन के देखिके अइसन लागत बा कि राउर सार्थक मूल्यांकन अब ले ना हो पावल। आजु के आलोचना का बिसे में राउर का विचार बा?” बेगर लाग-लपेट के उहांके कहनाम रहे-“आजु के आलोचना गोलबंदी के शिकार होके रहि गइल बा। अब आलोचना कृति के पढ़िके ना, कृतिकार के पहुंच आ ओकरा से होखे वाला घाटा-मुनाफा के धियान में राखिके होत बा।”
हमार एगो अउरी उत्सुकता रहे -“जवना तरी फिलिम में रउआं सबसे पहिले भोजपुरी गीत लिखनीं, ओह किसिम के भोजपुरी साहित्यो में का कवनो प्रयोग कइले बानीं?
उहांके तपाके से जवाब दिहनीं-“जरूर!’बन-बन बोलेले कोइलिया’ में रउआं हमार प्रयोग देखि सकींले। ई लोकसंगीतिका के संग्रह ह, जवन आकाशवाणी इलाहाबाद (अब प्रयागराज) के केशवचंद्र वर्मा के निहोरा पर ‘फोक ऑपेरा’ का रूप में लिखल गइल रहे। ई भोजपुरी के पहिल प्रयोग रहे।”
“आजु कविता के का हाल बा?” सुनते उहांके भावुक हो गइनीं-“आजु के अधिकांश कवितन में काव्यात्मकता सिरा से गायब बा। बाकिर जब कबो हमरा नीमन कविता मिलेला, हम जरूर पढ़ेलीं। हम हरदम कविता के तलाश में रहेलीं-खाली छंद, गीत आ लए में ना, एकरा हर रूप में। लिखे से हमार मन कबो थाकेला ना, काहें कि लेखने हमरा खातिर जिनिगी बा-
कलम जिंदा न होती तो कभी का मर गया होता,
पहुंचने के लिए घर पर खुदा के घर गया होता!
हम कविता के परेमी हईं आ आखिरी सांस ले कविता के प्यार करत रहबि, ओकरा के जीयत रहबि।”
फेरु त मोती बी ए के कविताई शुरू हो गइल रहे। कविता के बाबत उहांके कहनीं-
जब ले कविताई कला दरबारन से हटिके जनता में न जाई
जबले न दलालन के धोकरी से निकाल के बाहर कइल जाई
जबले चमचा के बजारन में कविताई से पेट के आगि सेवाई
तबले कवि गंग के खींचल खाल में काहे न ठूंसिके भूस भराई!
कृषि के साझा संस्कृति पर ‘कटिया के सुतार’ का बहाने उहांके विचार रहे-
खेत-खेत घूमेला तेली-तमोली
नउवा आ धोबिया के निकलल बा टोली
सुनऽ ताड़ू लोहरा आ कोंहरा के बोली
भइले गंवार सरदार हो सजनी
कटिया के आइल सुतार।
उहांके गांव के महुआबारी में ले जात कहनीं-
महुआ अइसन ले रेंगइले,जरी-पुलुई ले कोंचइले
लागल डाढ़ीडाढ़ी डोलिया-कंहार सजनी
ई गरीबवन के किशमिश अनार सजनी
असों आइल महुआबारी में बहार सजनी!
उहांके ‘चिरई हो चिरई’ के पांती रहे-
खिचड़ी खइबू कि खइबू सतुआ
लबरी खइबू कि पिंड़िया घोरुआ
भरुआ मरिचा, आम के चटनी
ओकरा ऊपर सोगहग मुरई
खेते जइबू कि कीरा खइबू
टांगुन रहिला कतहीं ना पइबू
हमरे अंगना मंगना लोटे
जब तू अइबू तब पछतइबू
कहां बनइबू आपन खतोना
आगि लागल बा गंवई गंवई
चिरई हो चिरई, चिरई हो चिरई!
आजुओ जब मोती बीए के इयाद आवेला, त उहांके रचनाशीलता के अइसन दिया जरत बरत लउकेला, जवना के बुताए के त सवाले नइखे उठत, ऊ त हरदम गह-गह कोना-अंतरा अंजोर करत रही। उहां के ओह शाश्वत जगमगात पांती से स्मृति के प्रणामांजलि!
एगो दिया जरेला, जवन कहियो ना बुताय
जवन परे ना लखाय, जवन हाटे ना बिकाय
जवन कोना-अंतरा सगरो अंजोर करेला
एगो दिया जरेला, एगो दिया जरेला!
- भगवती प्रसाद द्विवेदी