” ए टुनटुन भइया तनी हमरो गइया बना दा न ।” एगो साँवला, नाटा लइका के घेरले कुल लइकी-लइका चिरौरी -बिनती करत रहलन अउर एहर अपने कला के कॉपी में गाय के पोंछ के रंगे में लवलीन सिर झुकवले टुनटुन केहुए ओरी धियान ना देत रहलन।उनकर माथा तब्बे ऊपर भइल जब उजरकी गाय रंगाय -बन्हाय के पियरका पन्ना पर एकदम हूँफे-धावे खातिर तैयार देखाय लगल। टुनटुन के नन्हकी आँख में तरई जगमगाय गइल।होठ के गोल घुमाय के उ सीटी बजवलन – ” ला लोग, धउरे खातिर हमार उजरकी तैयार हो गइल।अब सांती से बतावा लोग केकर – केकर बनावे के ह ?” टुनटुन क बनावल गाय देख के उनकर संगी -साथी सोकताय गइलन – ‘ हेतना सुग्घर हो टुनटुन ! हमहन क त काम तमाम कय देहला तू।हमहन क कइसे बनावे के ? ” वइसे त हेतना बड़ाई पर टुनटुन के फूल के कुप्पा हो जाए के चाहत रहे लेकिन उ एतना गंभीर रहलन कि अइसन कुल बड़ाई क उनके उप्पर कवनों फरक न देखाय।
” अच्छा रुक जा लोग पहिले बहिन क काम हो जाए दा फिर तोहन लोग क होई।” टुनटुन अपने से दू साल छोट बहिन मने हमरे ओरी खिसक अइलन आ उनकर कला क कॉपी में कइल चीन्हा खँचाई देखे लगलन।बहिन क कुल घमंड तोड़त ठठाय के हँसे लगलन।एतना हँसलन कि उनकर पेट दुखाय लगल – ” ई गाय बनवले हऊ ? कवने ओरी से गाय लगत हे।एकरे आगे त बकरियो फेल ह।हेतना छोट ललरी होला गाय क ? खुर बनवले हऊ कि करिया नन्हबुड़िया गड़हा ? छोट खुनी गाय क हेतना बड़ सींघ होला। हईं थुथुन देख के त लगत ह कि गदहा बनावे क कोसिस करत रहलू ह।हेतना भोथर ? हे गनेस जी इनके तनी बुद्धि -उद्धि दा।जा ए बहिन कला के मामिला में त एकदम्मे नील बटे सन्नाटा बाड़ू।हिंदी -अंग्रेजी से बच जालू नाहीं त मास्टर साहब छड़िये -छड़ी तोहूँ के कुटतन।” टुनटुन के बात में सच्चाई रहल। गाय के रूप में बकरी आ गदहा क संकर सरूप बनाके हमहूँ खुस ना रहलीं बाकिर सबके सामने टुनटुन से मिलल एह बेइज्जती से तिलमिला के कहलीं – ” अपने आप को बड़का पिकासो समझते हो। मेरे को नहीं बनाने आता तो नहीं आता।तुमसे मदद के लिए कब बोला कि इधर आ गए।हटो भागो यहाँ से।मेरे को तुम्हारी कोई हेल्प नहीं चाहिए।घर चलो तो बताते हैं।नहीं पिटवाया बाबा से तो कहना।” बड़बड़ात -तिलमिलात झोला -झक्कड़ उठा के उँहा से हम भागे के फिराक में रहलीं कि टुनटुन बाँह पकड़ के बइठा लिहलन – ” अरे काहें गुसियात हऊ बहिन ! हम त एतरे ऐसे बोली ला कि तू कुछ सीखा -जाना।देखा कला बिसय में हड़बड़ी से काम ना चलेला। धीरज धर के कोशिश करबू त धीरे -धीरे सब सीख जइबू।वइसे अबहीं खड़ी बोलत रहलू ह त बहुते नीक लगत रहल ह।त का सहर में बहुत बढ़िया पढावल जाला ? बतावा कुछ सतना के बारे में।”
” केतना बार बताएँ ? बताते -बताते मैं थक जाती हूँ।बस ! अब नहीं बताऊँगी।तुमको हमारी गाय बनाना है तो बनाओ नहीं तो मत बनाओ।ज्यादा से ज्यादा क्या होगा ।आर्ट में फेल हो जाऊँगी न ? होने दो।” हम आपन नाक फुलावत कॉपी बैग में रखे लगलीं बाकिर रख ना पवलीं।टुनटुन हाथ से कॉपी छोरत कहलन – ” लइकी हऊ कि चुरइन।जब कहत हईं कि दा हम बना देत हईं त काहें रोगराही करत हऊ।ढेर खड़ी मत हाँका। मेरे को तेरे को करके मरले बाड़ू कि नरक मचा देले हऊ। हमहूँ को खड़ी बोलने आता है।समझी !ढ़ेर बना मत, कपिया हमके दा।काल्ह बना के लेआ देब।काल्ह हमके ग्रामर पढ़ा दीहा।ठीक न ?”
टुनटुन के जब -जब हम याद करीला त इहे कुल दिन आ हँसी-मजाक ,बात -ब्यौहार याद पड़ेला।उनसे मुलाक़ात के समय हम कक्षा आठ में पढ़े आइल रहलीं गाँव से दो किलोमीटर दूर कस्बा के स्कूल में।टुनटुन हमरे गाँव के दक्खिन टोला में बसल भर बस्ती के गरीब परिवार क एकलौता अइसन लइका रहलन जवन अपने ज़िद पर अड़ल पढ़े लिखे के सुभीता पा गइल रहलन। सातवीं तक क पढ़ाई शहर में क के हम गाँव में आ गइल रहलीं पढ़े। परिवार में घटल दुर्घटना क परिणाम रहल इ जवने के कारण हमके इँहा तालमेल बइठावे में बहुत दिक़्क़त होखे।गाँव से दू किलोमीटर पैदल चल के स्कूले पहुँचल तनी मेहनत क काम त रहल लेकिन हँसी -खेल ,मेल-जोल एही समय में पोढ़ होखे।आस-पास के गाँव -गिरांव से कुल दस -बारह लइका-लइकिन क झुंड कुद्दत -फानत ,हँसत-बोलत जब डहर चले त चना -मंटर क लहरात खेत धंगाय जाए।आम- अमरूद क बगइचा अगोरे वाला लोगन के नाक में दम हो जाए। कवनो गाँव क लइका जदि दूसरे गाँव के लइकी के छेड़ दें ,हँसी-ठिठोली क दें त मार हो जाय।लाठी -बल्लम निकले में देर ना लगे। ई कुल देखके हमार परान सुखाय लगे त टुनटुन क शरण लिहीं।टुनटुन रहलन त शांत सुभाव क लेकिन एतना ब्यवहार बना के रखले रहलन कि केहू उनसे झगड़ा -झंझट ना करे। उनकर ड्राईंग -पेंटिग क आस-पास के गाँव में खूबे बड़ाई होखे। गांव जवार में जब केहू के इँहा शादी -बियाह होखे त उनके रंगे -सजावे खातिर बोलावल जाए।किसिम -किसिम कागज क फूल बना के आ साड़ी क चांदनी बना के उ एतना सुंदर माड़ो सजावें कि जेही देखे उहे तारीफ करत न थके। घर के मेहरारुन लोग क त उ दुलरुवा रहलन। मंदिर से लेके माटी -पक्का के घर के दीवार के उ किसिम किसिम के सुंदर चित्र से रंग डालें। टुनटुन में एह अनूठा चित्रकार क वास जनमे से रहल। उनके यादे न पड़ें कि उ कब चित्र बनावे शुरू कइले रहलन।पुछले पर बतावें कि अक्षर लिखे से पहिले गाय -गोरु क चित्र बनावे अपने आप आ गइल रहे। हमके सातवीं कक्षा में अपने आर्ट टीचर मिस रूबी से पता चलल रहे कि पाब्लो पिकासो बहुत प्रसिद्ध चित्रकार रहलन।उनमें चित्र बनावे क प्रतिभा जन्मजात रहल।मिस रूबी कहें कि कला अदिमी में बचपने से छुपल रहे ले ओके अभ्यास से बहरे ले आवे के चाहीं। टुनटुन के जब भी हम सुंदर-सुंदर चित्र बनावत देखीं त हम उनके पिकासो के बारे में बताईं।टुनटुन अचरज से भरल कहें कि का अपने कला के दम पर केहू एतना नाम कमा लेवे ला कि ओकर चर्चा देस -बिदेस में होखे लगेला ? हमरे हामी भरले के बाद उनके आँखिन में सपना बिचरे लगे।कुछ देर बदे उ गुमसुम हो जाएँ।
जवने स्कूल में हमहन क पढ़त रहलीं जा उ आठवी तक रहे।ओकरे बाद आगे पढ़ें बदे हम बनारस आ गइलीं।टुनटुन क खोज खबर गर्मी क छुट्टी भइले पर मिले। जब भी उ दुआरे आवें हम पूछीं कि चित्र बनावे क काम कइसन चलत ह ? पढ़ाई -लिखाई कइसन चलत ह ? ” हमरे सवाल क जवाब एक्के लाइन में मिले – ” कुल ठीक चलत ह बहिन।आपन बतावा।” जब हम अपने बारे में बताईं त उ चौंक जाएँ – ” ह ! एम.ए. में पहुँच गइलू ? अरे बतावा।पते न चलल।”
हमरे शादी के बहुत दिन बाद टुनटुन से बनारस के एक हस्पताल में भेंट भइल।उ अपने मेहरारु के डॉक्टर के देखावे आइल रहलन।सत्ताइस -अट्ठाइस के उम्र में ही अधेड़ लगत रहलन।पहिले त हम उनके पहचाने ना पवलीं बाकिर जब ” बहिन हो ! का हाल ह ? ” करत पंजरे अइलन त हम चिन्हलीं – ‘ टुनटुन ?”
उ पास के कुर्सी पर बइठल अपने मेहरारू के ओरी इशारा करत कहलन – ” इनके देखावे आइल हईं।डॉक्टर कुछ ठीक बतावत ना हउवन बहिन।कब्बो केहू न्यूरो क दिक़्क़त बतावत ह त केहू गर्दन क नस दब गइल बतावत ह।ए बहिन ! हई रिपोर्टवा देख के बतवतू कि का लिखल ह।हमके त समझे में ना आवत ह।” गमछा से पसीना पोछत टुनटुन पास वाली कुर्सी पर बइठ गइलन।
” रिपोर्ट तो डॉक्टर ही बता पाएंगे भइया।हम तो बस पढ़ देंगे।” जब हम पढ़े शुरू कइलीं त उ हमके अचरज से देखत कहलन – ” बहिन हो ! केतना सुंदर पढ़त हऊ।हमरो पढ़ाई ना छूटल रहत त हमहूँ तोहरे नियन कहीं मास्टर होतीं।कला क मास्टर।बाकिर लिलार पर गोबर उठावे अउर मरीज ढोवै के लिखल ह त का करीं।” हम उनके समझावल चहलीं बाकिर कुछ बोल ना पवलीं।उनके मेहरारु से हाल -समाचार पूछे लगलीं।पता चलल जवने उमिर में हम एम.ए.कंप्लीट कइलीं टुनटुन के दू गो लइका हो गइल रहलन जवनन के पाले -पोसे खतिर उ हमरे बड़का बाबा के यहाँ चरवाही-हरवाही करे लगल रहलन।टुनटुन हमसे अपने दिन-दुर्दिन के बारे में कुछ ना बतवलन बाकिर एक्के घंटा में उनकर मेहरारू कुल बता घललिन। जब हम जानल चहलीं कि ‘ का अब्बो चित्र बनावेला ? ‘ टुनटुन उदास हो गइलन।भरल आँख क आँस छुपावत कहलन – ” कहाँ बहिन ! उ कुल त कच्छा आठे में छूट गइल रहे । नौ में एडमिशन लेवे के रहलीं कि बियाह हो गइल।फिर त जनते हऊ खेती गृहस्थी में बाझल अदिमी खातिर भईंस चरावल कला बनावे से अधिक जरूरी हो जाला। हमहन के घरे आप लोगन नियन ना न सिच्छा क महत्व समझल जाला। ” ई कुल कहत टुनटुन उदास हो गइलन।पास बइठल मेहरारू के आँख में आँस झिलमिलात रहे। हमके समझ ना आवत रहल कि उनहन लोग के का कहके समझाईं।कुछ देर चुप रहले के बाद हम उनहन लोग के घरे चले बदे कहे लगलीं।बाकिर बहुत मनावन कइले पर भी टुनटुन घरे चले खातिर ना तैयार भइलन।हमरे ज़िद कइले पर धीमा -दुखित आवाज़ में कहलन – ” बहिन हो ! समझत काहें ना हऊ।कहाँ तोहन लोग कहाँ हमहन क।अपने ससुरे घरे क चरवाह-बनिहार क सुवागत – सत्कार करबू त का उनहन लोग के नीक लगी ? जा ! पहिलहीं नियन तू सिधवा रहि गइलू। समझल करा, तू पाब्लो पिकासो के घरे ना बोलावत हऊ टुनटुन हरवाह के बोलावत हऊ। तोहार पापा जान जइहन त हमके जियत ना छोड़ीहन।चला हमार नंबर आ गइल।जियत जिनगी रही त फिर भेंट होई।तोहके परमात्मा सुखी रखें। ” टुनटुन अपने मेहरारू के लेके डॉक्टर के केबिन में चल गइलन आ हम बहुत देर तक ठिठकल सोचत रह गइलीं कि कला मे लवलीन रहे वाला टुनटुन बिना कला बनवले जियत कइसे हउवन।
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डॉ. सुमन सिंह
सहायक आचार्य
हिंदी विभाग
मुकुलारण्यम् महाविद्यालय, सिगरा ,वाराणसी