ग़ज़ल

भोर ले लोर अँखिया के खरचा भइल।

रात भर मन ही मन उनके चरचा भइल।

जेके रखनीं ए हियरा में आठों पहर,

जाने कइसेदो मन ओकर मरिचा भइल।

मन परीक्षा में हल खोजते रहि गइल,

आँख उनकर सवालन के परचा भइल।

कवनो पूरुब – पच्छिम के कमाई बा का,

जे रहे हाथ पर खरचा – वरचा भइल।

मन के मंदिर में शंकर ना अइले कबो,

रात भर गाँव में शिव- चरचा भइल।

हाय! ‘ संजय’ के बोलल त काले भइल,

कहले नीमन बदे बाकिर मरिचा भइल।

 

  • संजय मिश्रा ‘संजय’

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