भोर ले लोर अँखिया के खरचा भइल।
रात भर मन ही मन उनके चरचा भइल।
जेके रखनीं ए हियरा में आठों पहर,
जाने कइसेदो मन ओकर मरिचा भइल।
मन परीक्षा में हल खोजते रहि गइल,
आँख उनकर सवालन के परचा भइल।
कवनो पूरुब – पच्छिम के कमाई बा का,
जे रहे हाथ पर खरचा – वरचा भइल।
मन के मंदिर में शंकर ना अइले कबो,
रात भर गाँव में शिव- चरचा भइल।
हाय! ‘ संजय’ के बोलल त काले भइल,
कहले नीमन बदे बाकिर मरिचा भइल।
- संजय मिश्रा ‘संजय’