‘कउने नरेसवा क देसवा उजरि गइले…’

आजु रामजियावन दास ‘बावला’ जी के जयंती हऽ। ‘बावला’ जी, लोकमन के कवि रहलें। कुछ विद्वान लोग उहाँ के ‘भोजपुरी के तुलसीदास’ कहले बा। बाकिर हम उहाँ के तुलना कवनो दोसर कवि से ना करऽब। ‘बावला’ जी के कवनो प्रतिमान नइखे हो सकऽत। कवनो पैमाना भा कसउटी पऽ उहाँ के नइखे तउलऽल जा सकऽत। काहें कि उनका जइसन केहु भइले नइखे। उहाँ के तुलना, उहाँ से ही हो सकऽता। ‘बावला’ जी से पहिला भेंट हमके इयाद बा। पर, पहिलका छवि हमरे मन में कइसन अंकित भइल? सहजमना। सोझ। गँवई औदार्य से भरऽल। मौलिक रचनाकार। अचके कविता भा गीत रचे में माहिर। साधु मनई। उहाँ के खूब रचनी। स्कूली पढ़ाई, तीसरा-चौथा दर्जा तक। जीवन संघर्ष से भरऽल। पारंपरिक पेशा, चरवाही से जीवनयापन। बाकिर काव्य मंचन पर उहाँ के सम्मान के साथे बुलावल जाए। पंडित विद्यानिवास मिश्र, पंडित चंद्रशेखर मिश्र, पंडित कमलापति त्रिपाठी, हरिराम द्विवेदी, कैलाश गौतम, गहमरी जी, अशोक द्विवेदी, मोती बीए, आचार्य मुकेश जइसन विद्वान आ कवियन के सानिध्य। ‘बावला’ जी खूब रचले। काशी से धइले कलकत्ता तक के काव्य मंचन पऽ उहाँ के दमगर उपस्थिति रहे। देवरिया से लेके दिल्ली तक आपन कविताई से छाप छोड़ले। बाकिर ‘रमता जोगी’ रहलन। कवनो खेमा में बन्हइले नाहि। नतीजतन उनकर रचना पऽ आलोचकन के नजर नाहि पड़ऽल। साहित्य इतिहास के किताबिन में महज ख़ानापूर्ति भइल। पुरहर चर्चा ना भइल। हाले में ‘भोजपुरिया अमन’ के एगो विशेष अंक, ‘बावला’ जी पऽ आइल बा। साहित्य अकादमी से एगो मोनोग्राफ भी छपल बा। ‘बावला’ जी के दूगो किताब भी छपल बा। एगो उनके जियते छपल। दोसर उनका ना रहे पऽ।
हालाँकि कथा वाचक, गायक लोग ‘बावला’ जी के रचना के खूब चाव से गावेला। व्यावसायिक लाभ उठावेला। पर, ‘बावला’ जी के नाम लेवे से सभे परहेज करेला। कुछ साल पहिले के बात हऽ। एगो भोजपुरी गायक, ‘बावला’ जी के गीत अपने नाम से गवलस। सोशल मीडिया के जरिए भारी विरोध भइल। फेर, ‘बावला’ जी के नाम, गीतकार के रूप में दर्ज भइल। पर, कथावाचक लोग, तऽ ‘बावला’ जी के नामे ना लिहल चाहेला। हमके एही बात के चिंता बा कि अगिला कुछ बरिस में ‘बावला’ जी के लिखल गीत, कथावाचकन के नाम से जानल जाए लागी। काहें कि ‘बावला’ जी के कहीं नामे ना रही। लिहाजा गैरखेमबाज कवियन के शृंखला के 20वीं कड़ी में आजु ‘बावला’ जी के एगो रचना—‘कउने नरेसवा क देसवा उजरि गइले’ पर बात होई।
इ ‘बावला’ के सिग्नेचर रचना हऽ। छंद गीत। जब ‘बावला’ जी एहके काव्य-मंचन पऽ पढ़स, तऽ उनका आँखिन से अविरल अश्रुधारा फूट पड़े। करूणा से हृदय द्रवित हो जाए। ‘बावला’ जी के संवेदनशील मन कराह उठे। ‘बावला’ जी, एकरा के पूरा ना पढ़ पावें। सामने बइठल काव्य रसिक श्रोता, मंचासीन कवि भी रोदेसु। साधारणीकरण के अवस्था। कवनो कवि भा लेखक के सर्वोच्च उपलब्धि हऽ। उनका मनोभाव के साथे दोसरा के भी मन के तार जुड़ जाए। ‘बावला’ जी अइसने कवि रहलें। फिलहाल रउआ उहाँ के एह रचना के देखीं—
‘कउने नरेसवा क देसवा उजरि गइले
केकरे दुवरिया न छाँव, ए बबुआ आज रहि जा हमरे गाँव
सेवा में चूकबऽ न साधन जुटइबै,
आयसु जवन होई तहवाँ ले जइबै
रचिको न करिहा अन्देसवा कलेसवा क
देखा देखाइ देहीं ठांव
ए बबुआ…
केकर करेजवा बजर कै सँवारल
कवने अहेरिया क हउव तू मारल
कउने नगरिया क हउवा अँजोरिया
हमरा से कहि देता नाँव
ए बबुआ…
जियरा दरकि जाला सुनि के अनीती
चौदह बरिस कइसे बनवा में बीती
हमहन के अर्जी पर मर्जी बताय दा
मत सोचा दाहिन बाँव
ए बबुआ…
अमिरित सरिस बोलि जियरा जुड़ावा
मड़ई गँवारन क पावन बनावा
सब बावला बाटै सेवा में तोहरे
रूक जा थकल होई पांव
ए बबुआ…’
राम वनगमन के पृष्ठभूमि में इ छंद ‘बावला’ जी रचले बाड़न। बाकिर राम खातिर ‘बबुआ’ संबोधन ‘बावला’ जी के स्नेहिल हृदय के बोधक बा। इ छंद, सहजमना गाँववासी के हृदय के पुकार हऽ। उ राम के आपन झोंपड़ी कऽ छाँव सँउपऽता। इ कविता, साहित्यिक मर्म बुनऽतिया। मानवीय संवेदना से भरलऽबिया। राम, एहिजा ‘बबुआ’ बाड़न। दैवीय पुरुष नाहि। सहज मानवीय व्यक्तित्व। कवि, उनका के अपना घर-परिवार के अंग मानऽता। वनवास के दु:ख एह के आधार बा। इ गँवईमन के आँखिन से देखऽल गइल बा। कवि, वनवासी राम के अपना गाँवे-घरे बुलावऽता। सहजे भाव में। उनके स्वर में कवनो उपदेश नइखे। बनावट नइखे। हृदय कऽ आलाप हऽ। भक्ति एकरे में रंग घोलऽतिया। करुणा, एहके नम करऽतिया। असल में इ छंद, लोक के सहज संवेदना हऽ। गाँव कऽ सांस्कृतिक स्मृति, जीवंत हो रहल बा।
साँच पूछीं तऽ ‘बावला’ जी के इ कविता, भोजपुरी लोक-संवेदना आ काव्य-चेतना के नमूना बा। गँवई जीवन के सहजता आ मानवीय करुणा के गहिर संनाद के एके साथे समेटले बिया। इ अपने शिल्प, रस आ शैली में खास बा। संगे-संगे ‘बावला’ जी जइसन संवेदनशील मन के धनी कवियन के सामर्थ्य भा ताकत भी बतावऽतिया। जनसाधारण के दुख-दर्द के रचना के केंद्र में बा। भावात्मक सघनता, रस के प्रतीति, छंद के समन्वित संरचना आ परिवेश के साथ ओकरे संनाद में निहित बा।
‘बावला’ जी के इ छंद गीत, भोजपुरी लोक-जीवन के परिवेश में रचाइल बा। गँवई जीवन के सरलता, अतिथि-सत्कार के परंपरा आ एगो अनजान पथिक के प्रति सहानुभूति एकर आधार भा अलम बा। कविता के परिवेश उहे गँवई समाज बा, जवन बाजारवादी यांत्रिकता से अछूता बा। बाकिर मानवीय संवेदना से भरल बा। एहिजा ओइसने गँवई मनई के, एगो राही के साथे संवाद बा। जे पथिक के थकल पाँव आ उनकर अनकहल व्यथा देखि के करुणा से भरि जाला। ‘बावला’ जी के एह छंद में भोजपुरी भाषा के ऊ सहज प्रवाहमयी शक्ति के अपनवले बाड़न, जे लोक-मन के संवेदना के सहजे जाहिर करऽता। इ छंद, ओह सामाजिक मूल्य के रेखांकित करऽता, जहाँ अतिथि के देवता के समान मानल जाला। बाहरी पक्ष से इ छंद, एगो साधारण गँवई संवाद जइसन लागी, बाकिर एकरे अंतर में एगो गहिर करुणा आ मानवीय संवेदना के प्रवाह बा। जवन एके साहित्यिक ऊँचाई दे रहल बा।
असल में संवेदना एह छंद कऽ आत्मा बा। भक्ति भाव, एहिजा औपचारिक नइखे। कवि, पथिक राम के दुख के जीयऽता। उनकर नेह, भक्ति रस के गाढ़ करऽता। आंतरिक पक्ष कवि के मन हऽ। करुणा से सरोबोर बा। प्रेम, एहमें उमड़ऽता। समर्पण एहमें झलकऽता। बाह्य पक्ष, वनवास से रचाइल बा। ‘अमिरित सरिस बोलि’ बिम्ब हऽ। ‘करेजवा बजर कै सँवारल’ रूपक। बावला जी राम कऽ दिव्यता के गाँव के रंग में रंगत बाड़न। इ काव्य अनुभूति के अउर गहिराह बनावऽता।
एह छंद गीत के आंतरिक पक्ष, एकरे भावात्मक गहराई आ संवेदनशीलता में निहित बा। करुणा से भरल बा। जे एगो थकल-हारल पथिक के प्रति सहानुभूति आ उनका दुख के समझे के चेष्टा से उपजऽता। काव्य नायक (स्वयं बावला जी के अनूभूति हऽ) पथिक से उनका दुख, गंतव्य आ उनकर यात्रा के कारण जानल चाहताड़े। बाकिर इ जाने के उत्सुकता, जिज्ञासा से बेसी करुणा से प्रेरित बा। इहाँ कवि के मन पथिक के दुख से तादात्म्य स्थापित करऽता। इ ‘साधारणीकरण’ के अवस्था के रेखांकित करऽता। कविता के हरेक अंतरा इ तादात्म्य के अउर गहिराह करऽता। एहिजा कवि खाली पथिक के विश्राम देबे के बात नइखे करऽत, बलुक उनका मनोभाव के समझे आ उनका पीड़ा के साझा करे के भी कोशिश करऽता।
असल में इ पूरा छंद में करुण रस के प्राधान्य बा। पथिक के थकान, उनकर अज्ञात गंतव्य आ अनकहल व्यथा से ही एकरे सोता फूट रहल बा। करुण रस के स्थायी भाव, एहिजा पथिक के दशा देखि के कवि के मन में उपजऽता। करुण रस तब सघन होखेला, जब उ कवनो प्रिय या परिचित के दुख से ना, बलुक एगो साधारण व्यक्ति के दुख से उत्पन्न होखेला। एहिजा पथिक एगो अनजान व्यक्ति बा, तबहूँ उनका प्रति करुणा-भाव साधारणीकरण के पराकाष्ठा के दर्शावऽता। करुण रस के साथ-साथ संनाद के कुछ क्षण में वात्सल्य रस के छाया भी देखाई देता, खासकर जब कवि, पथिक के ‘ए बबुआ’ कहिके संबोधित करऽता। इ संबोधन, आत्मीयता आ स्नेह के भाव के जाहिर करऽता, जे एके अउर मार्मिक बनावऽता।
ओहिजे जब रउआ एह रचना के ध्यान से देखऽब, तऽ मालूम होई कि इ असल में गीत छंद में रचाइल बा। भोजपुरी लोक-गीतन के परंपरा से संनादित बा। छंद के संरचना सरल आ लयबद्ध बा। लोक-काव्य के सहजता के बरकरार रखले बा। हरेक अंतरा में दू पंक्ति के एगो युग्म आ फिर दू पंक्ति के एगो अउर युग्म बा, जे अंत में ‘ए बबुआ…’ के संबोधन के साथ खत्म होता। इ संबोधन कविता के एगो संनाद देता, जे श्रोता के भावात्मक रूप से बाँधे में सक्षम बा। शैली के दृष्टि से एहिजा भोजपुरी के मधुरिमा बा, जे लोक-जीवन के संवेदना के सहजता से व्यक्त करऽता। ‘बावला’ जी के भाषा के बहुते सरल बा। पर, एह सरलता में एगो गहिर संवेदनशीलता भी निहित बा। शब्दन के चयन, जइसे ‘उजरि गइले’, ‘दुअरिया’, ‘करेजवा’, ‘अनीती’ आदि, लोक-जीवन से उनका जुड़ाव के उजागर करऽता।
‘कउने नरेसवा क देसवा उजरि गइले
केकरे दुअरिया न छाँव,
ए बबुआ आज रहि जा हमरे गाँव’
इ पहिला अंतरा बहुते मार्मिक बा। कवि, राम के यात्री भा बटोही मानऽता। उनके सुख देवे के चाहऽता। सखा भाव से। इ अंतरा सहज बा। बाकिर करेजा के बेधऽता। एक-एक बिम्ब महीनी से चुनल गइल बा। ‘छाँव’ शांति के प्रतीक हऽ। पथिक राम के दुख के कम करे के पुकार एहिजा बा। एह अंतरा में कविता के प्रारंभिक स्वर स्थापित होता। एहिजा कवि, पथिक से उनका गंतव्य आ उनकर यात्रा के उद्देश्य जाने के कोशिश करऽता। ‘नरेसवा’ आ ‘देसवा’ जइसन शब्द भोजपुरी लोक-जीवन के विशिष्टता के उजागर करऽता। राजा आ देश के अवधारणा के गँवई संदर्भ में प्रस्तुत करऽता। कवि सहजे कल्पना करता कि आखिर कइसे कवनो राज उजड़ गइल। आखिर कवने विपदा भा आफत के मारल इ बालक बाड़न जे आपन देश छोड़ि के एह वनांचल में भटकट बाड़न। ‘उजरि गइले’ में अइसन व्यथा के झलक बा, जे पथिक के प्रस्थान बिंदु के नष्ट होखे के संभावना के दिखावता। कवि इहो सोचता कि आखिर ओह राज में कइसन आकाल पड़ल बा कि कवनो छाँव नइखे बँचल? ताकि अइसन सुघर बालकन के आसरा मिल सके। ‘केकरे दुअरिया न छाँव’ में ओही छाँव के अनुपस्थिति, पथिक के असहायता के प्रतीकात्मक रूप से व्यक्त भइल बा। ‘ए बबुआ आज रहि जा हमरे गाँव’ में कवि के आत्मीयता आ करुणा साफ जाहिर बा, जे पथिक के अपने गाँव में सुसुताये भा आराम करे बदे निहोरा करऽता। इ अंतरा करुण रस के आधार तइयार करऽता। जे कविता के भावात्मक सघनता के अउर बढ़ावऽता।
‘सेवा में चूकबऽ न साधन जुटइबै,
आयसु जवन होई तहवाँ ले जइबै
रचिको न करिहा अन्देसवा कलेसवा क
देखा देखाइ देहीं ठांव
ए बबुआ…’
ओहिजे एह अंतरा में अतिथि-सत्कार के भावना के दिखी। एहिजा कवि, पथिक के आश्वस्त करऽता। उनका सेवा में कवनो कमी ना होई। ‘सेवा में चूकबऽ न’ में गँवई जीवन के उदारता आ आतिथ्य परंपरा झलकत बा। ‘साधन जुटइबै’ आ ‘आयसु जवन होई तहवाँ ले जइबै’ में कवि के तत्परता आ पथिक के प्रति उनका जिम्मेदारी के भाव के झलकी मिली। ‘रचिको न करिहा अन्देसवा कलेसवा क’ में एगो गहिर मानवीय संवेदना बा। जहवाँ कवि, पथिक के उनका दुख आ चिंता से मुक्त करे बदे हर उतजोग करे के बात करऽता। तमाम आग्रह-मिन्नत के बाद कहऽता, अब तऽ हमरे घरे चलऽ। उहे हमार गाँव दिखऽता। ‘देखाइ देहीं ठांव’ में पथिक के गंतव्य जानल के उत्सुकता बा, जे करुणा से प्रेरित बा। इ अंतरा आत्मीयता के अउर सघनता देता। साथे-साथ वात्सल्य के छाया के भी उजागर करऽता।
‘केकर करेजवा बजर कै सँवारल
कवने अहेरिया क हउव तू मारल
कउने नगरिया क हउवा अँजोरिया
हमरा से कहि देता नाँव
ए बबुआ…’
ओहिजे इ अंतरा कविता के सबसे मार्मिक हिस्सा बा। कवि, पथिक के व्यथा के अउर विस्तार से समझे के कोशिश करऽता। ‘केकर करेजवा बजर कै सँवारल’ में उ पथिक से पूछऽता उ कवन कठकरेजी मनई हऽ, जेकर हृदय बजर से बनल बा, पत्थर से बनल बा, कठोर बा जे उनके दुख के कारण हो सकऽता। ‘कवने अहेरिया क हउव तू मारल’ में एगो प्रतीकात्मक प्रश्न बा। जे पथिक के जीवन में कवनो बड़ नुकसान या संघर्ष के संकेत देला। आखिर कवन शिकारी तोहरे पऽ हमला कइले बा, तोहके शिकार बनावे के कोशिश कइले बा, जवना से तू हकासल-पियालस एह वन परांतर में भटकट बाड़ऽ? ‘कउने नगरिया क हउवा अँजोरिया’ में उहे कल्पना बा जे पथिक के अपने नगरी से निकल गइला पऽ घटाटोप अंधकार में डूबल होखे से जुड़ल बा। कवि, पथिक के कवनो एगो जिनगी भा परिवार से जोड़ के नइखे देखऽत। उनका के पूरा नगर के अँजोरिया के उपमा देता। ओह नगरी के अँजोरिया खो जाये के बात सोचऽता। एहिजा इ छंद दृश्यमय बनऽता। ‘हमरा से कहि देता नाँव’ में कवि के करुणा आ आत्मीयता चरम पर बा, जे पथिक के दुख के साझा करे के इच्छा दर्शावऽता। असल में इ अंतरा करुण रस के सघनता के आपन शिखर पऽ ले जाला।
‘जियरा दरकि जाला सुनि के अनीती
चौदह बरिस कइसे बनवा में बीती
हमहन के अर्जी पर मर्जी बताय दा
मत सोचा दाहिन बाँव
ए बबुआ…’
इ अंतरा एह छंद के एगो पौराणिक संदर्भ में ले जाता। रामायण के वनवास-प्रसंग के संकेत देता। वन प्रांतर में भटकत पथिक अउर केहु ना, राम-लखन आ सीता हऽ लोग। अब उ लोग अपने वनवास के पूरा विवरण कवि के बतावऽता। ‘जियरा दरकि जाला सुनि के अनीती’ में कवि के मन अन्याय के बात सुनके व्यथित हो जाता। ‘चौदह बरिस कइसे बनवा में बीती’ में पथिक के कष्टमय यात्रा, राम के वनवास से जोड़ल गइल बा। इ एगो गहिर सांस्कृतिक संदर्भ से जुड़ऽता। ‘हमहन के अर्जी पर मर्जी बताय दा’ में कवि के विनम्रता आ पथिक के प्रति सहानुभूति के भाव बा। ‘मत सोचा दाहिन बाँव’ में पथिक के चिंता छोड़के विश्राम करे के आग्रह बा। असल में इ अंतरा करुण रस के पौराणिक संदर्भ के साथ अउर गहिर करऽता।
‘अमिरित सरिस बोलि जियरा जुड़ावा
मड़ई गँवारन क पावन बनावा
सब ‘बावला’ बाटै सेवा में तोहरे
रूक जा थकल होई पांव
ए बबुआ…’
एह अंतिम अंतरा के साथे इ छंद गीत पूरा होता। एकर समापन होता। एहिजा कवि के करुणा आ आतिथ्य के भावना चरम पर बा। ‘अमिरित सरिस बोलि जियरा जुड़ावा’ में पथिक के वाणी के अमृत के समान बतावल गइल बा। अइसन बानी सुनि के करेजा जुड़ा जाता। शांति मिलऽता। ‘मड़ई गँवारन क पावन बनावा’ में उहे अनुरोध बा कि अगर बबुआ तोहार गोड़ हमरे मन के मड़इया में पड़ि जाई, तो उ पवित्र हो जाई। ‘सब ‘बावला’ बाटै सेवा में तोहरे’ में पूर्ण समर्पण के भावना बा। ‘सबरी’ के दशा हो गइल बा। का खियाईं, का पियाईं, कहाँ बइठाईं, अकिल हेरा गइल बा। सुधि नइखे। मन ‘बावला’ हो गइल बा। ‘रूक जा थकल होई पांव’ में पथिक के थकान के प्रति गहिर संवेदना बा। इ अंतरा करुण रस आ वात्सल्य के साथे मिलाके कविता के एगो मार्मिक समापन देता।
आखिर में बस अतने जानी ‘बावला’ जी के इ छंद भोजपुरी लोक-काव्य के परंपरा के जोरदार नमूना बा। एकर संवेदना, छंद, शैली आ रस के सघनता एके एगो उच्चकोटि के साहित्यिक कृति बनावऽता। असल में कवनो काव्य रचना के मूल्य ओकरे भावात्मक सघनता आ साधारणीकरण के क्षमता में निहित होखेला। एह कसौटी पऽ इ छंद ‘सोलहो आना’ खरा उतरऽता। ‘बावला’ जी के सहजता, उनकर गँवई संवेदना आ मानवीय करुणा एह छंद के सबसे अलग खड़ा करऽता। इ खाली काव्य-रसिकन के ही अपने ओर नइखे आकर्षित करऽत, बलुक साधारण जन के करेजा के भी छूअता। एह खातिर इ छंद, एगो खास स्थान के हकदार बा। ‘बबुआ’ राम हउवन। दैवीय नाहीं। मानवीय। बावला जी, उनका के आपन मानऽता बाड़न। भक्ति, एह छंद गीत में फलित होता। आतिथ्य एहिजा फूलऽता। एह से ‘बावला’ जी के इ रचना, भारतीय जीवन के मूल्यन के गीत बनऽतिया।
-डॉ  देवेंद्र नाथ तिवारी

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One Thought to “‘कउने नरेसवा क देसवा उजरि गइले…’

  1. Dhirendra kumar

    अद्भुत लेख

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