हम त भूलाइये गइनी
कईसन होला केहूँ गाँव
जब से पसरल शहर में
गड्ढा में गईलन सगरे गाँव
न दिखेला पाकुड़ के पेड़
न चबूतरा, न खेत के मेड़
न बाहर लागल ईया के खाट
न रौनक बचल मंगलवारी हाट
न अब लईकन के कोई खेल
बचपन ले गइल मोबाइल के रेल
न गुल्ली, न डंडा, न पिट्ठों, न गोटी
गाँव गईलन शहर में खोजत रोटी
कईसे बाची बाग-बगीचा
फुलवारी रखे के तनी सलीका
हाय-हेलो में मरल त जाला
गोड़ लागे के सब तौर-तरीक़ा
कईसे न भूलाईब हम आपन गाँव
दूआरी बदलल, छप्पर बदल गईल
न गाँव, गाँव रहल न पक्का शहर भईल
बस माटी स मुलायम रिश्ता कंक्रीट भईल।
- सारिका भूषण
कवयित्री, लेखिका एवं लघुकथाकार
राँची , झारखंड