का जमाना आ गयो भाया, आन्हरन के जनसंख्या में बढ़न्ति त सुरसा लेखा हो रहल बा। लइकइयाँ में सुनले रहनी कि सावन के आन्हर होलें आ आन्हर होते ओहन के कुल्हि हरियरे हरियर लउके लागेला। मने वर्णांधता के सिकार हो जालें सन। बुझता कुछ-कुछ ओइसने अहम् के आन्हरनो के होला।सावन के आन्हर अउर अहम् के आन्हरन में एगो लमहर अंतर होला। अहम् के आन्हरन के खाली अपने सूझेला, आपन छोड़ि कुछ अउर ना सूझेला। ई बूझीं कि अहम् के आन्हर अगर सोवारथ में सउनाइल होखे त ओकर हाल ढेर बाउर हो जाला। ओकर सोचे-समुझे के अकिल बिला जाले। मतिए मरा जाले।अइसन आन्हरन खाति केहु आ कतनों नीमन काज कइले होखे भा ओहनी ला आपन करेजों काढ़ि के दे दिहले होखे,उनुका कतनों मान-सनमान कइले होखे, उनुका रसूख ला हरमेसा ठाढ़ रहल होखे, तबो अहम् में आन्हर लो मोका पवते ओहू बेकती के इजत बिगारे में अझुराइए जालन। अहम् में आन्हर लो अपना के सभे ले लमहर विदवान बुझेला लो। ई त सभे पता होला कि अहम् में आन्हर लो के लगे आपन कतना अउर का-का बा। भर जिनगी अहम् में आन्हर लो एने-ओने ताक-झाँक क के भा कुछ जोगाड़-सोगाड़ से जवन किछु जुटावेला, ओहके एह श्रीष्टि के सबसे उत्तम मानेला। भलहीं ओकर कीमत दुअन्नीओ भर के ना होखे।
साहित्यो में अहम् में आन्हर लो के तादात कम नइखे। इहवों अइसनका लो अपना संगे चमचा बेलचा, चेला-चपाटी आ भकचोन्हरन के गोल बना के रहेला। ओहनी के गोल के अइसनका लो एकके इसारा पर लिहो-लिहो करे में लागि जाला। कवनों भल मनई जे आपन जिनगी साहित्य के सुसुरखा में लगा देले होखे, अपना लेखनी का संगही तन-मन-धन से साहित्य के समरिध करे में कवनों कोर-कसर न छोड़ले होखे, ओहुओ के इजत पर रइता फइलावे बेरा अहम् में आन्हर लो बेसरम हो जाला। कुइयाँ के बेंग लेखा अपना के शक्तिमान बुझे वाला एह लो का लगे आपन जमा का होला, ई सभे के जाने के चाही। दोसरा के लिखल पुरान साहित्य के अनुवाद उहो गूगल बाबा से पूछ-पाछ के, दोसरा के लिखलका में थोड़-बहुत हेर-फेर क के, दोसरा के लिखलका पर आपन नाँव चेंप के जवन हासिल होला, उहे एह लोग के मौलिक होला। अइसनका लो दोसरा के लिखलका बांचत बेरा जरिको ना लजाला । ओहिके नगाड़ा पीटत ई लोग डोलत रहेला आ अपना के ओह भाषा-साहित्य के पुरोधा बतावे में जीव-जाँगर से जुटि जाला। उनुका एह काम में उनुकर चमचा-बेलचा, चेला-चपाटी आ कुल्हि भकचोन्हर लागल देखालें। जरतुहाई अइसन लो के नस-नस में हिलोरा मारत रहेला। मोका लगते अपना मुखौटा चमकावे में कवनों स्तर तक चहुंप जाला लो ।
ई प्रजाति अजबे किसिम के होले। एह प्रजाति का चलते उनुका हाँ में हाँ मिलावे वाला उनकरे लेखा लोगन के कुछो अक-बक करे के मोका भेंटात रहेला। अहम् में आन्हर लो के सार्थक आ समरिध काम लउकबे ना करेला। अपने गुन गावे आ अपने पीठ थपथपावे में अइसन लो के समय बीतत रहेला। मने ‘सभले बेसी सभे कुछ चाही’ के मंतर के जाप आठो पहर कइल इहाँ सभन के सोभाव में भेंटाला।
मनराखन पांड़े आ भुंअरी काकी के अइसनके लोगन के धाह लाग गइल बाटे। उहो लो आ उनुका चमचा-बेलचा लो आंउज-गाँउज बोल-बाल रहल बा। मनराखन त अतना कुछ बोल रहल बाड़ें कि उनुका मनई होखलो पर कुछ लो सवाल उठा रहल बा। एगो खास तरह के बेरा में मनराखन के बोल आ करतूत दूनों देखे जोग होले। सुने में आवता कि उहे वाली बेरा नगिचा रहल बा। हाथी आ टोंटिओ बकलोलई में ढंग से अझुरा गइल बानी। एने-ओने कुछ चिरई-चुरमुन अपने चकर-चकर में लागल बाड़ें। मने एह घरी बकलोलई के बोलबाला बा। सभे एह घरी अपने के कुछ खास देखावे में लागल बा। अहम् में अन्हरन के त बागे नइखे मिलत। अइसन कुछ देख-सुन के कुछ लो मुस्कियो मार रहल बा। अब देखीं, रउवो सभे के मुस्कियाये के मन हो रहल होखे, त मन के मति मारीं। जी भर के मुसकियाईं। अब हमरा चले के बेरा हो गइल बा, फेर हलिये भेंट होखी।
जयशंकर प्रसाद द्विवेदी
संपादक
भोजपुरी साहित्य सरिता