अइसे कइसे

महटिया के सूतल जागी, अइसे कइसे।

सभे बनत फिरे बितरागी, अइसे कइसे।

 

सोझे आके मीठ बोलवा

सोरी में अब डाले मंठा।

ओकरे फेरा घर बिलाई

फिरो बजावत रहिहा घंटा।

सूपा पीट दलिदर भागी, अइसे कइसे ।

सभे बनत—-

 

बेगर बुझले बिना ताल के

ओही रागे अपनों गउला।

सब कुछ तहरा राख़ हो गइल

आग लगवलस समझ न पउला ।

उनुका खाति बनला बागी, अइसे कइसे ।

सभे बनत—-

 

हीत-मीत के बात न बुझला

ओकरे रौ में मति मराइल ।

अपनन के घर बाहर कइला

तहरा जरिको लाज न आइल ।

उनुका खाति बनला दागी, अइसे कइसे ।

सभे बनत—-

 

सभे मारत फिरत हौ मुसकी

तहरे करनी धरनी बाबू ।

समय के संगे समझ आई

कइसे रखबा खुद पर काबू ।

उनुका चलते सरम लागी, अइसे कइसे ।

सभे बनत—-

 

  • जयशंकर प्रसाद द्विवेदी

१.११.२०२४

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