आन्हर गुरु, बहिर चेला

समय लोगन का संगे साँप-सीढ़ी के खेल हर काल-खंड में खेलले बा,अजुवो खेल रहल बा। चाल-चरित्र-चेहरा के बात करे वाला लो होखें भा सेकुलर भा खाली एक के हक-हूकूक मार के दोसरा के तोस देवे वाला लो होखे,समय के चकरी के दूनों पाट का बीचे फंसिये जाला। एहमें कुछो अलगा नइखे। कुरसी मनई के आँखि पर मोटगर परदा टाँग देले, बोल आ चाल दूनों बदल देले। नाही त जेकरा लगे ठीक-ठाक मनई उनुका कुरसी रहते ना चहुंप पावेला, कुरसी जाते खीस निपोरले उहे दुअरे-दुअरे सभे से मिले ला डोलत देखा जाला। ई साँच जनला का बादो लो चेतबे ना करत। भा इहो कहल जा सकत बा कि समय अइसन लोगन के चेते ना देला। कबीर बाबा ई बाति बहुते पहिले बता देले रहें बाकि ओकर अरथ अभियो लोगिन के बुझाइल कि ना, समझ के परे बा। हम चाहतानी कि कबीर बाबा के बाति रउवो सभे एक बेर फेर से पढ़ीं, सुनी आ गुनी—-

‘चलती चक्की देख के , दिया कबीरा रोय।

दो पाटन के बीच में, साबुत बचा न कोय॥’

एह देस में धरम आ अध्यात्म के अनगिन सोता फूटल आ  बहल, समय का संगे आपुसो में मिलल आ फेर एह समाज के महासमुंदर में समा गइल। ई एगो पक्ष रहल, दोसरका पक्ष इहो बाकि ओही समय में एगो धरम के लो दोसरा के मेटावे खाति कुल्हि उधातम कइल, मेटा ना पवलस आ खुदे बिला गइल। कतने राज आ राजा लो अइने, आपन राज फइलवलें, आपन आपन धरम जबरियो फइलवलें, बाकि उहो लो दोसरा धरम के खतम ना क पवलें, खुदे बिला गइलें। इहे खेला अजुवो चल रहल बा। कुछ लो अजुवो अइसन बा जे दोसरा मानसिक,सामाजिक अउर धार्मिक हानि पहुंचावे ला कुल्हि उधातम क रहल बा। उहो लो के हाल उहे होखी, जवन उनुका पहिले वाला लोगन के भइल रहे बाकि लो बूझल नइखी चाहत भा उहाँ सभे के बुझाते नइखे। एह कुल्हि करतूतन से देस, समाज आ साहित्य सभे प्रभावित होला, अजुवो हो रहल बा। बाकि आजु के नीति नियंता लो के हाल ‘आन्हर गुरु, बहिर चेला’ वाला भइल बूझाता।

कुछ लो कबों देस आ समाज के सनमान न करे खाति जामेला। अइसन लोगवा एहू घरी बा आ ढेर बा। आजाद देस में कब के आजादी माँगे लागता आ  केहुके ई देस आजाद बा कि ना, पते नइखे। ढेर लो मिलके कबर खोने में लागल बा। कवनों कबर खोनला पर का भेंटाला, ई सभे मालूम बा। तबो लो खोने में जुटल बा। कुछ लो पाप नाशिनी गंगा के आशीष के सगरे ठेका उठा के बइठल बा आ लोगिन के जलाभिसेक करवा के पवित्तर करि रहल बा तबे नु काल्हु तक  ले जे बाउर रहल भा अश्लील रहल, उहो लो अब नीमन हो गइल सुने में त इहों आवता कि संगे अवते आधा पाप असहीं बिला जाला। अब ओह लोगन का संगे मिल के सबकुछ हो रहल बा। इहे हाल साहित्य के लेके हो चुकल बा।

भोजपुरी साहित्य सरिता परिवार आपन लय बनवले साहित्य के बढ़न्ति में जतना संभव बा करे के परयास में लागल बा। यति गति के आपन रंग होला, आपन पौरुष होला, आपन वितान होला, ओहु से सभे परभावित हो जाला, त हमनिए के कइसे बाचब। तबो परयास बा कि कुछ नीमन होखे, एही सोच का संगे पत्रिका के ई अंक रउरा सभे के सोझा परोसा रहल बा। जय भोजपुरी !!

 

  • जयशंकर प्रसाद द्विवेदी

संपादक

भोजपुरी साहित्य सरिता

 

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