आपन बात

साहित्य के चउखट पर ठाढ़ ऊँट कवने करवट बइठ जाई , आज के जमाना मे बूझल तनि टेंढ ह । कब के टोनहिन नीयर भुनभुनाए लागी आ कब के टोटका मार के पराय जाई ,पते ना चले । आजु के जिनगी मे कवनों बात के ठीहा ठेकाना दमगर देखाई देही , भरोष से कहलों ना जा सके । एगो समय रहे जब मनई समूह मे रहत रहे , अलग समूह – अलग भाषा –बोली , रीत – नित सभे कुछ कबीला के हिसाब से रहे । ओह कबीलन मे अपने तीज – त्योहार , उत्सव , हास –विलास ,जिनगी – मउवत के लेके कबों उलझन रहल होई , कतो ना देखाला । समय बदलल , मनई विकास के सीढ़ी चढ़ल , आधुनिक बनल बाकि समूह – समाज के सोच के कुचिल के । “एकला चलो” के मंतर समाज के सोच के हम से मैं तक ले गइल । फेर ई सुनि के कि फलाने के घरे मे उनके माई के कंकाल मिलल ह , केकरो संवेदना अब ना जागेले । केकरो हिरदया से आहो ना निकसेले , मनई मशीन बनि गइल ।

कवनों भाषा आ संस्कार ला ओके बोले आ जीए वाला समूह – समाज के ज़िम्मेवारी होले । आपन भाषा , समाज, संस्कार , सोच सभे के जोड़ के आगे लेके चले खाति ओही समाज , समूह के लो उत्तरदायित्व निभावेला । अपने संस्कार, रीत –नीत, भाषा , संस्कार फरे – फुले के उताजोग मे समरपन के भाव जागल रहेला , उमड़त रहेला । अब एह सोच के पसरो भर मनई खोजलो पर ना मिलेलन । अब लोगन के आपन भाषा बोले मे शरम लागेला , हीनता के बोध होला , जवने के उचित ना कहल जा सकेला । इहे बरियार कारन ह कि भाषा मू रहल बाड़ी सन । जब कवनों भाषा मरेले त खाली भाषे ना मुवेले , ओकर संस्कार – समाज मरि जाला ।

इस्कूल, कालेज , विश्वविद्यालयन के अब शिक्षा के मंदिर कहे मे सभे के डर लागे लगल बा । एगो छोट बच्चा से लेके युवा तक केहू सुरक्षित नइखे । लइकिन के पढे – लिखे पर त फेर से बीपत खड़ा हो रहल बा । “बेटी पढ़ावों” क नारा बुझता हवाई बा । जब बेटी बचिहें तबे नु पढ़िहें । जब इजत से लेके जिनगी तक दांव पर लागल बा , ओह घरी शिक्षा के बात बेमानी बुझाला । हत्या , बलात्कार , गुंडागर्दी से लेके दोहद्रोह तक अड्डा बन चुकल एह कूल्हि संस्थानन के सोर से लेके फुनगी तक सुधारे के जरूरत बा । राजनैतिक पार्टीयन के नैतिक स्तर एतना गिर चुकल बा कि कहलों मे शरम आवेला । अपने बिरोधी के बदनाम करेला उ कवनों कदम उठा लेवेला । अफवाह के बजार मे आगि लगावे मे कवनों कोर कसर ना छोड़ेला लो । एकरा के सामाजिक पतन के चरम सीमा कहल जा सकेला ।

रिस्तन के सिकुड़न एतना बढि गइल बा कि कतहूँ कवनों तरे के आस ना बाचल बा । अब रिस्तन के नाँव बोलहूँ मे डर लागत बा । कब कवने रिस्ता के लेके खुसुर – फुसुर शुरू हो जाई , कहल  ढेर मुसकिल बा । समय के एहि बहाव मे मनई गिरत – परत आगा बढ़े ला परयास करत रहेला । लँगड़ी मारे वाला लो लँगड़ी मारत रहेला , आगे  जेकरा बढ़े के बा बढ़िए जाला भोजपुरी लेखा, जवन सदियन से ई दंश झेल रहल बिया । एगो अइसन महतारी जवन आज ले अपने एकहू लायक पूत से ना मिल पवलस, जवन ओकर माई होखे के सनमान दे देसु । सेवा करे वाला पूत त सेवा करि रहल बाने आ उ अगहूँ करते रहिहें ।

भोजपुरी साहित्य सरिता के ई अंक भोजपुरी के सँवारे वाले पूतन के नमन करत अपने जतरा मे निकल पड़ल बिया , सुख – दुख , हँसी – खुसी , सँग – बिछोह , बरखा – बूनी , आन्ही – पानी जइसन पड़ाव भेंटइबो करी , जरी मनि झटको लागी बाकि जतरा पहिले से ढेर जोस से चलत रही, इहे हमनी के परयास बा ।

  • जयशंकर प्रसाद द्विवेदी

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