प्रगतिशीलता के नाँव पर

भाषा सब अइसन भोजपुरी साहित्य में बेसी कविते लिखल जा रहल बा. दोसर-दोसर विधा में लिखे वाला लोग में शायदे केहू अइसन होई, जे कविता ना लिखत होई. एही से कविता के जरिये भोजपुरी में साहित्य लेखन के दशा-दिशा, प्रवृति-प्रकृति के जानल-समझल जा सकत बा. साहित्य आ साहित्य के शक्ति के बारे में एगो श्लोक भरतमुनि कहले बाड़े –
नरत्वं दुर्लभं लोके विद्वत्वं तत्र दुर्लभम्.
कवित्वं दुर्लभं तत्र शक्तित्वं तत्र दुर्लभाः
.
कविता आ काव्य शक्ति के जे हाल होखे भोजपुरी में कवि आ लेखक के भरमार बा. एही भरमार से भोजपुरी लेखन के प्रवृति आ धारा भरमाए लागल बा. हम अपना बात के फरिआवे खातिर भोजपुरी के प्रसिद्ध आलोचक-समीक्षक महेश्वराचार्य के कथन दोहरावे के चाहत बानी. उहाँ का अपना समीक्षात्मक पुस्तक ‘त्रिपुटी’ के भूमिका में लिखले रहीं – ”सत् साहित्य भा स्थायी साहित्य के सृजन कम हो रहल बा. अधिका हो रहल बा मनोरंजन के सृजन. श्रोता भा पाठकन के रूचि बदल गइल बा. लेखक भा कवि अपना श्रोता भा पाठकन के खुश करेवाला चीज लिख रहल बाड़ें. परंपरा के कठोरतम सीमा के तूर के युग प्रगतिशीलता ले आवे के फेरा में पड़ गइल बा. शुकदेव के अभेद ज्ञानो, एह प्रगतिशीलता से मात खा रहल बा. “

असल में प्रगतिशीलता के नाम पर बहुत चालबाजी आ खेल होत रहल बा. प्रगतिशीलता त सतत चले वाली प्रक्रिया हऽ. एकर बिस्तार लमहर बा, बाकिर प्रगतिवाद आ जनवाद के नाम पर एकरा के संकुचित करे के काम चलत रहल बा. दुनिया में हो रहल हर तरह के परिवर्तन के समेटत स्वीकारत आगे बढ़त रहे के प्रेरित करे वाली विशेषता हवे प्रगतिशीलता. प्रगतिवाद के दायरा संकुचित बा. प्रगतिवाद मार्क्सवाद के कोख से ऊपजल आ वामपंथी विचारधारा से प्रतिबद्ध होके रूढ़ हो गइल.

रचना भा रचनाशीलता का वैचारिक उहो निखालिस एगो राजनैतिक विचारधारा से प्रतिबद्ध कइल, ओकरा के सीमित दायरा में बान्हल कहाई. जइसे कवनो नदी आ झरना के पानी के खास उद्देश्य से घेरि के नहर भा डैम में राख दिआय. एह वैचारिक प्रतिबद्धता के बारे में बड़ा सटीक ढंग से, अपना काव्य संग्रह ‘केतना बेर’ में पी. चन्द्र विनोद जी भूमिका का जरिये बतवले बानी कि रचनाकार का वैचारिक प्रतिबद्धता से तटस्थ आ मुक्त रहे के चाहीं-

”कवनो खास खूँटा में बन्हा के जे रचना होइ्र त रचनाकार के व्यक्तिगत आवेश आ संवेदना धूमिल पड़ जाई. कवनो प्रतिबद्धता के हर बिन्दु, ओह से प्रतिबद्ध हर आदमी के पूरा-पूरी व्यक्तिगत हो पाई, ई जरूरी नइखे. भीतर के आवेग के बिना, कलम के जबरी बोकराती बनावल, शुद्ध सर्जना खातिर अस्वभाविक बा. ई एक तरह से मुँह में अंगुरी डाल के बोलवावल होई. “

एने भोजपुरियो में प्रतिबद्धता के पिटल-पिटाइल परिपाटी पनप रहल बा. अपना के प्रगतिवादी-जनवादी ‘कवि’-‘लेखक’, ‘आलोचक’ कहवावे-गिनवावे के प्रवृति बढ़ रहल बा. एही होड़ में सत्-साहित्य आ शास्वत साहित्य के हेठी आ नजरअंदाज कइल जा रहल बा, नीचा देखावल जा रहल बा. ई वैचारिकता दलगत आधार पर काम कर रहल बा. ई प्रतिबद्धता आदमी-आदमी के बराबरी के काम में अबले सफल त नइखे हो सकल, उलटे भेद बढ़ा देले बा, दूरी पैदा कर देले बा, कई तरह के विवाद पैदा कइले बा. भोजपुरी साहित्य के कवि-कथाकार आलोचक बरमेश्वर सिंह जी अपना कविता संग्रह ‘अथ लुकाठी कथा’ के अपना कथन में एह प्रतिबद्धता के खबर लेले ”हमरा समझ से फैशनेबुल प्रतिबद्ध भइल, प्रगतिशील साहित्यिक मूल्यन के अपमान कइल बा. आज काल पार्टीबद्ध होके अपना आप के प्रतिबद्ध घोषित कइला से मिले वाली सुविधा के खूब दुरूपयोग हो रहल बा. “ एह बात के अउर फरिया के उहाँ का अपना कविता संग्रह ‘गीत-अगीत’ के अपना भूमिका में बतवले बानी – “ दरअसल, ई कुल्हि खेल अपना के प्रगतिशील साबित करे के फेरा में फँसल आलोचक करि रहल बाड़ें. अजब तमाशा बा. ई प्रगतिशीलतो आज एगो मुखौटा होके रहि गइल बा. बाकिर, ई रीढ़ तब स्वस्थ रही, जब सोच सकरात्मक रही, तबे कथनी-करनी में साम्य रही. अब सकारात्मक सोच के पैमाना ई बा कि ऊ मानवीय मूल्यन खातिर कतना चिंतित आ प्रयत्नशील बा. बाकिर आज के ढेर प्रगतिशीलन के मुखौटा के पीछे छिपल चेहरा पाक साफ नइखे.“

बरमेश्वर जी के कथन आज के भोजपुरी लेखन में प्रगतिशीलता के दशा बतावत बा. बरमेश्वर जी समकालीनता के नाम पर तात्कालिकता का चलन पर अंगुरी उठवले बानी आ सही उठवले बानी. प्रगतिशीलता आ समकालीनता के गतिवाद-जनवाद आ तत्कालीनता के घेरा में बंद कइल साहित्य के सत् शाश्वत आ मानवीय सहजता से दूरं कइल बा. प्रगतिवाद आ जनवाद के पैरोकार लोग सामाजिक परिवर्तन भा क्रांति खातिर साहित्य में खाली भौतिक जन के बात कर रहल बा; ओह जन का मन के महत्व नइखे देत, ओकरा मन के खेयाल नइखे करत. जनवादी साहित्यकार-आलोचक का एह बात के धेयान नइखे कि आदमी के आदमी से रिश्ता-नाता, मूल्य के पहचान, चाहे मानसिक तनाव से मुक्ति मने से हो सकेला. ओकरा ई नइखे बुझात चाहे ऊ बुझे के नइखे चाहत कि खाली आर्थिके आजादी आ खयाली क्रांति से आदमी के भलाई नइखे, सहृदयता आ सह-अनुभूतियो जरूरी बा. ऊ विमर्श संवेदनशीलता जरूरी बा, जवन आदमी के आदमी से जोड़ेला. मुक्त छन्द के युगबोधी कविता संग्रह ‘आगे-आगे’ के संपादक आ दर्शन शास्त्र के विद्वान साहित्यकार डॉ रिपुसूदन श्रीवास्तव अपना भूमिका में साहित्य में जन के साथ मन के ऊपर बल देने बानी. जन आ मन के संगम स्थल पर रचल जाए वाला साहित्य सोगहग साहित्य हो सकत बा. उहाँ के कहनाम बा- ”एने कुछ दिन से कहल जा रहल बा, जे जवन कुछ ‘जनवादी’ बा, ऊहे साहित्य ह, बकिया सब कुछ कूड़ा-करकट ह, ऐय्यासी ह. ‘जनवादी साहित्य’ के मथेला के नीचे जे कुछ आवेला ओकर सम्बन्ध आदमी के सामाजिक आर्थिक परिवेश से बाटे. ‘जनवाद’ आ ‘मनवाद’ एक दोसरा के विरोध में खड़ा बा. हमनी का, ई मानीले जे ‘जन’ के कल्याण ‘मन’ के छोड़ के ना होखें ‘मन’ के मार के केहू खुश कइसे हो सकेला. आदमी के बेहतरी मार्क्सवाद का अलावा दोसरो लोग का सोच आ चिन्ता के विषय रहल बा. कवनो एगो वाद के मान लीहल मानसिक संकीर्णता बतावेला. ‘मनवादी’ साहित्य के कूड़ा-करकट कहल हमरा विचार से राजनीतिक बाध्यता भले होखे, बौद्धिक ईमानदारी ना कहाई. हमनी का सोच से जनवाद आ मनवाद के संधि स्थल पर जवन साहित्य जनमेला, जवन कविता उपजेला ऊ समूचा आदमी के साहित्य होला.“

‘आगे-आगे’ के कवितन में उपरोक्त बात के खेयाल राखल गइल कि प्रगतिवाद-जनवाद के फेरा में मन के अनदेखी ना हो जाए. प्रगतिवादी-जनवादी कविता पर ई आरोप सही बा कि ऊ जादातर ‘नाराबाजी’ बन के रह जाला. जबकि कविता नारा-बाजी आ लटकाबाजियो ना ह. कविता कवनो सिद्धान्त के पद्यानुवादो ना ह. कविता तन आ मन दुनो दिसाई भोगल अनुभूति के कवनो सत् उद्देश्य से कइल रसगर अभिव्यक्ति हऽ. एह अभिव्यक्ति के तेवर देश-‘काल आ पारिस्थिकी से अनुकूलित होखे के चाहीं. कविता अइसन जोरदार जरिया, गाय के घीव चाहे मधु अइसन, जवना में कड़ुआ से कड़ुआ चीज लपेट के गला के नीचे उतार दिहल जा सकत बा, प्रेम से. कविता अइसन जोरदार हथियार हऽ जे असर के बाद लागेला. लगला के बाद असर ना करे. लोहा वाला हथियार लगला के बाद असर करेला. हमरा समझ से भोजपुरी कविता अपना आदिकाल से लेके आज तक आदमी के आदमी बनवले राखे खातिर जूझ रहल बा आ जन-मन के संगमस्थले पर आकार ग्रहण करत रहल बा. गोरखनाथ, कबीर से शुरू होके लमहर संत परम्परा में पोषित होखत एकर जवन धारा बहल, ऊ कुँवर सिंह के शौर्य के बखान करत देश प्रेम में परिवर्तित भइल आ रघुवीर नारायण जइसन कवियन से परिपुष्ट भइल. आगे उहे प्रकृति-प्रेम आ भाषा प्रेम में आपन सरूप बदलत बढ़त गइल. हीरा डोम रचित अछूत के शिकायत’ से दलित विमर्श शुरू भइल त भिखारी ठाकुर के दलित-शोषित कमजोर समाज के आर्थिक सामाजिक चित्रण पर लोगन के नजर पड़ल.

आजादी के बाद आम आदमी के टूटत सपना ठगात हालत के चित्रण छायावाद का प्रभाव में शुरू भइल आ मुक्त छंद नवगीत, गजल में व्यक्त होखे लागल सब में आदमी का बेहतरी खातिर संघर्ष के स्वर गूँजल आ बिना कवनो भेद-भाव सबके दुख-तकलीफ आ हर्ष-विषाद के समेट के अभिव्यक्त कइलस. भोजपुरी कविता गोरख-कबीर से लेके आज तक भोजपुरिया संस्कार-संस्कृति आ प्रेम के सोन्ह गंध में पगाइल रहल. एह पोढ़ परम्परा पर अब सवाल उठावल जा रहल बा, एकरा के खाना में बाँटे आ नकारे के प्रयास जारी बा. एह सवाल आ एह नकरला के पीछे राजनीतिक जनवाद के मानल जा सकत बा.

जनवाद प्रगतिशीलता के नइखे अपनवले, बलुक अपना बाइ प्रोडक्ट के रूप में गुटबाजी, जातिवाद आ वर्गवाद उपजवले बा. प्रगतिवाद आ जनवाद के प्लेटफॉर्म से ऊॅच-नीच, अमीर-गरीब, छुआ-छूत, अंध-विश्वास, नारी आ दलित उत्पीड़न जइसन समस्यन के मोटावे के संकल्प उठवले रहे, आदमी-आदमी के बराबरी के बात करत रहे, ऊ तऽ सफल ना हो पावल, बलुक नया-नया समस्या पैदा भइल, आदमी-आदमी के बीच खाई पैदा होत चल गइल. गोल आ गुट बरियार भइल. परंपरागत रूप से चलत आ रहल भेद-भाव, छूआ-छूत, भय-भूख, उत्पीडन-दलन सहित नाना प्रकार के विसंगतियन के उन्मूलन त नाहिये भइल, ऊ दोसरा रूप में नया-नया तरह के भेद-भाव दुराव, छुआ-छूत, उत्पीड़न-दलन आ प्रतिकार के रूप में सोझा आइल. एकर प्रभाव साहित्यो पर पड़ल, नीक आ बढ़िया सत् आ शास्वत साहित्य के अनदेखी होखे लागल. जातिगत आ वर्गगत आधार पर साहित्य के बढ़िया खराब कहत चर्चा कइल जाए लागल. एसे भोजपुरियो साहित्य के अहित हो रहल बा. एह में जाने-अनजाने भोजपुरिया इतिहास आ संस्कृति के विकृत करके साहित्य में परोसल आ स्थायी-शास्वत रचना के नकारत अपना रचना के श्रेष्ठ बतावल जा रहल बा. साहित्य के शास्वत-प्रवृति पर सवाल उठावल जा रहल बा.

हम दू-तीन गो उदाहरण देके एह प्रवृति के जानकारी देवे के चाहब. हमनी जानत बानी कि हिमालय जड़ी-बूटी, स्वच्छ हवा-पानी देवे के साथे साधना स्थली के रूप में जानल जाला, भला ऊ साँप जइसन फुफुकार काहे छोड़ी? हिन्द महासागर के पानी खारा होला, ओकरा में लहर उठेला आ ऊ घहराला. रस पीये के चीज ह, आम के रस होखे भा ऊखि के रस होखे. आगन्तुक के अइला पर रस-पानी से स्वागत कइल जाला. अब कवनो कवि हिमालय से फुफुकार छोड़वावे लागे आ सिन्धु से रसधार बहवावे लागे – ‘एक द्वार घेरी ठारऽ हिम कोतवलवा के, तीन द्वार सिंधु रसधारऽ मोरे मितवा’ अउर’ भोरे-भोरे झाँके जहाँ पहली किरनिया से, हिम खोहऽ मारे फुफुकार मोरे मीतवा’ त का कहल जाई? ओह पर से तुर्रा ई कि रघुवीर नारायण
के बटोहिया ‘गीत’ सुन्दर सुभूमि भइया भारत के देसवा से मोरे प्राण बसे हिमखोहि रे बटोहिया.’ – से अपना रचना के श्रेष्ठ बतावल जा रहल बा.

जातिगत आधार पर केकरो अवदान के कइसे नकारल जाला, एकर उदाहरण दे रहल बानी. ‘हीरा डोम’ के रचना ‘अछूत के शिकायत’ महावीर प्रसाद द्विवेदी ‘सरस्वती’ जइसन पत्रिका में छपलें. जवना घड़ी सबका ‘सरस्वती’ में जगह ना मिलत रहे. अब एने कहीं-कहीं ई सवाल उठल ह कि एगो ब्राह्मण दलित के रचना काहें छापी? हीरा डोम के दोसर कवनो रचना काहे नइखे उपलब्ध? कहीं द्विवेदिये जी त हीरा डोम के छद्म नाम से ‘आपन रचना’ नइखन न छाप देले. एह प्रकरण में द्विवेदी जी के अवदान के नकारे के क्रम में हीरा डोमो के नकारल जा रहल बा.

भोजपुरी साहित्य के महानायक बाबू कुँवर सिंह के लेके ‘फेसबुक’ पर सवाल उठल कि भोजपुरी साहित्य के महानायक बाबू कुँवरे सिंह काहे? दोसर केहू काहे ना? अब के बतावे कि कुँवर सिंह बुढ़ापा में तलवारे ना उठवलन, बलुक अंग्रेजन के खदेड़बो कइलन. उनका जुझारू चरित्र से प्रभावित होके पूरा भोजपुरी लोक झूम उठल, गा उठल. पॅवरिया, धोबीअऊ, कहरऊ, फगुआ गीतन में कुँवर के शौर्य गाथा भोजपुरी लोक गवले बा. सैंकड़न फुटकर कविता से लेके खण्डकाव्य आ महाकाव्य के दर्जनो रचना आ नाटक कुँवर चरित्र के ऊपर साहित्यकार लोग रचले बा. ई सब केहू के आदेश पर नइखे नू भइल, स्वतः स्फूर्त्त भइल बा. खाली क्षत्रिय भइला से उनका महानायकत्व के नकारल कहाँ तक उचित बा?

एही से हम कहत बानी कि प्रगतिशीलता का आड़ में प्रगतिवाद आ जनवाद से भोजपुरी कविता के अहित कइला के कोसिस हो रहल बा. जाति आ वर्ग के आधार पर आ राजनैतिक विचारधारा से प्रभावित हो के साहित्य के आकलन-मूल्यांकन भोजपुरी साहित्य के सोगहग सही रूप पाठक के सोझा नइखे आवे देत आ ओकर व्याख्या-विश्लेषण गलत ढंग से कर रहल बा. साहित्यकार के आत्ममुग्धता आ अपने मुँह मियाँ मिट्ठू ढेर नोकसान पहुँचा रहल बा. हम जे लिखनी, अब तक नइखे लिखाइल. एह से बढ़िया नइखे लिखाइल, जइसन कहनाम सही, सत प्रगतिशील आ शाश्वत के ऊपर परदा डाले के के काम कर रहल बा.

भोजपुरी कविता के परम्परा बड़ा समृद्ध बा, बाकिर नकरात्मकता के बल से सकारात्मक वस्तुअन के पीछे छोड़ देवे, अलोपित कर देवे के राजनीतिक चकरचाली अहितकर बा. बनावटीपन आ विचार के थोपा-थोपी से कविता अपना मूल जड़ से उखड़ रहल बिया. जीवन-प्रकृति से जुड़ के बिना वैचारिक कथरी ओढ़ले जवन साहित्य रचल गइल बा ओके महत्व दिहल जरूरी बा, आ आगे ओइसनके महत्वपूर्ण रचनाधर्मिता बनल रहे, एह पर बल दिहल जाये के चाहीं. भेदभाव पूर्ण नकारात्मकता दूर होखे के चाही. रचनाकार आ आलोचक दूनो खातिर डॉ. अशोक द्विवेदी के कथन उहें के काव्य संग्रह ‘कुछ आग कुछ राग’ के भूमिका ‘अछरे अछर सबद बनि भाखा….’ के अंश उद्धृत करत आपन बात खतम कइल चाहत बानी – ”एघरी जबकि साहित्य परखे वाला कुछ लोग कविता के ओकरा मूल से काटे पर उतारू बा, ई काम अउर कठिन हो गइल बा. बनावटी, चमत्कारपूर्ण, अतिवैचारिक आ कला से बोझिल कविता, आम आदमी के पल्ले ना परे. प्रेम आ प्रकृति से विलग भइल, मानव प्रकृति से अलग भइल हऽ. प्रत्यक्ष लउकत साँच से आँख फेरल हऽ. प्रेम आ प्रकृति त’ कविता सिरजन’ के मूल आधार रहल हऽ, फेरू अचके ओकरा से परहेज काहे?“ स्पष्ट बात ई बा कि अइसन परहेज नकारात्मक प्रवृत्ति के बढ़ावा दे रहल बा. प्रेम आ प्रकृति के नकार के आदमी-आलोचक भा साहित्यकार नैसर्गिक भाव के नकार रहल बा आ साहित्य के मूल्य उद्देश्य – आदमी के आदमी के जोड़ल आ आदमी के आदमी बनवले रखला – से भटक रहल बा. प्रगतिशीलता के आड़ में प्रगतिवाद आ जनवाद के नाम पर आदमी बहुत कुछ भइल चाहे ना, बाकिर आदमीयत से दूर भइल जा रहल बा.

  • डॉ ब्रजभूषण मिश्र

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