सामाजिक आ राजनीतिक विद्रूपता के खिलाफ के स्वर: गोरख के गीत

गोरख यानी गोरख पाण्डेय।हँ, उहे गोरख पाण्डेय जेकर गीत ‘ समाजवाद बबुआ, धीरे – धीरे आई ‘ आ ‘ नक्सलबाड़ी के तुफनवा जमनवा बदली ‘ गाँव के गली से दिल्ली के गलियारा तक अस्सी के दसक में गूंजत रहे। उहे गोरख पाण्डेय के गीतन पर हम इहाँ बात कइल चाहतानी। गोरख पाण्डेय के जीवन काल में उनुकर रचल गीत संग्रह’ भोजपुरी के नौ गीत ‘ प्रकासित भइल रहे।एकरा अलावा जहाँ – तहाँ उहाँ के भोजपुरी रचना छपल रहे। श्री जीतेन्द्र वर्मा ‘ गोरख पाण्डेय के भोजपुरी गीत ‘ नाम से गोरख पाण्डेय के गीतन के संकलित कइले बाड़न ।ओह संकलन  में गोरख पाण्डेय के इधर – उधर बिखरल रचनन के भरसक एक जगह ले आवे के सुंदर प्रयास कइल गइल बा। गोरख पाण्डेय के गीतन से गुजरला के बाद ओहनी के ‘ जागरण गीत ‘ के संज्ञा देल सर्वथा उचित होई।गीतन के पहिला नजर में देखला से दू चीज सामने आवता। पहिला कि ऊ सब गीत बाति कर रहल बा आम जन, किसान, मजदूर के जीवन के विभिन्न पक्षन  के सरल सुबोध उनुके भाषा में।उहो कवनो ना कवनो लोक प्रचलित धुन – रागि  – फगुआ,सोहर,कजरी,झूमर, बारहमासा आदि में।दूसर बात गोरख के गीत समाज आ राजनीति के विद्रूपता पर करारा आ सोझि चोट करत आम जन के जगावे के कोसिसे नइखे करत ओकर व्यंग्य आ मारक क्षमता दिमाग झंझोरि के रख देवे के ताकत रखता।इहे दूनो कारण बा कि आम जन, किसान, मजदूर के जबान पर चढ़ि जबरदस्त लोकप्रिय भइल उहो खाली भोजपुरी क्षेत्रन में ना बलुक पूरा देस में।

जहाँ तक देसव्यापी लोकप्रियता के बाति बा एह से समझल जा सकेला कि एक बेरि प्रियंका दूबे, बीबीसी संवाददाता नर्मदा नदी पर बन रहल बाँधन के एगो विरोध प्रदर्सन के कवरेज खातिर मध्यप्रदेश के खंडवा जिला में जात रही त उनुका कान में विंध्याचल – मालवा क्षेत्र के सड़क पर गूंजत एगो भोजपुरी गीत के बोल सुनाई पड़ल।ऊ गीत गोरख के रहे ‘ समाजवाद बबुआ, धीरे – धीरे आई ‘ , जेकरा के गावत नवही के दल चलल जात रहे।ओह घटना के एक साल बाद दिल्ली के जंतर – मंतर पर एगो विरोध प्रदर्सन में उनुका उहे गीत सुने के मिलल,जे उनुका के बाध्य कइलस गोरख पाण्डेय के गाँव जाके गोरख के जाने – समझे खातिर।

मुख्य रूप से पालन – पोषण वातावरण, आर्थिक आ सारीरिक शोषण, सामाजिक – राजनीतिक ताना – बाना के असर होला कि आदमी विरोध – विद्रोह के राहि पकड़ लेला।बाकिर इहो कहावत ह कि पूत के पांव पलने में पहचना जाला। मध्य वर्गीय समृद्ध बाभन परिवार में जनमल गोरख पाण्डेय के रहन – सहन, बात – विचार,सुभाव विरोध – विद्रोहि से शुरूआत से जुड़ल रहे, जेकर असर उनुकर रचनन पर खूब दिखलाई पड़ेला।गोरख के विरोध – विद्रोही सुभाव समाज से पहिले घरे में दिखलाई पड़ता,जे आगे चलके समाज आ आम जन के आवाज बनल।एक बेर दिल्ली में आपन जनेऊ तुड़के घरे अइला पर बाबूजी नाराज भइलन त गोरख साफ कहले कि ई धागा पहिर के दिन भर झूठ बोलत रहीं ई हमरा से ना होई, ई हमार संस्कार ना हऽ। सामाजिक आ पारिवारिक वर्जना कबो गोरख के ना बान्हि पावत रहे।गोरख होली में घरे जरूर जात रहन बाकिर गाँवे पहुंचते गरीब – दलित के टोला में जाके गीत गावत आ रंगे ना खेलत रहन,उन्हिनि के झोपड़ी में साथे बइठ के खाना खात रहन। अउर त अउर अपना बाबूजी के कहत रहन कि” एतना जमीन रखि का करबि ? काहे नइखीं बाँटि देत गरीब मजूरवन के बीच।सभके बराबर जमीन मिले के चाहीं।” अपने खेत में काम करत मजदूरन के भड़कावत कहस कि हमार बाबूजी के सब जमीन कब्जा कर लऽ लोगिन। समाजवाद के लड़ाई गोरख गाँव आ घरे से शुरू कइलन।गाँव आ माटी से जुड़ सामाजिक विद्रूपता के नजदीक से अनुभव कइले रहन गोरख।ओहि अनुभूतियन के शब्दन में गाँथिके गीत के रूप में विरोध के स्वर देलन।गोरख के विरोध – विद्रोह के भाषा देखावटी ना रहे। गोरख के बनारस छोड़ि दिल्ली जाय की पीछे अपना जीवन के लक्ष्य के सक्रियता प्रदान कइल रहे जे उनुकर डायरी में लिखल ” मैं बनारस तत्काल छोड़ देना चाहता हूँ, तत्काल! मैं यहाँ बुरी तरह उब गया हूँ। विभाग, लंका, छात्रावास, लड़कियों पर बेहूदा बातें, राजनीतिक मसखरी।हमारा हाल बिगड़े छोकरों सा हो गया है। दिल्ली में अगर मित्रों ने सहारा दिया तो हमें चल देना चाहिए। मैं यहाँ से हटना चाहता हूँ।बनारस से कहीं और भाग जाना चाहता हूँ “, बाति कह रहल बा। गोरख के ई बाति गोरख के सोंच अउर संवेदनशीलता आ घुटन भरल वातावरण से निकल लक्ष्य के ओर जल्दी से बढ़े के घोतक त बड़ले बा साथ ही अपना राहि से भटकल उनुका तनिको नइखे सुहात इहो कह रहल बा। गोरख भोजपुरी से अधिका रचना हिन्दी में कइले बाड़न बाकिर गोरख के उनुकर भोजपुरी में लिखल जनवादी गीतन के लोकप्रियता उनुका के जनकवि वनवलस,जे आजुओ विरोध के हथियार बनल बा आ आम जन के मुँहे पर रहेला। गोरख पाण्डेय सबसे अलग बाड़े ई समझे – बूझे खातिर उनुकर गीतन पर बात कइल जरूरी बा, आईं जनकवि गोरख के गीतन पर एक नजर डालल जाय।

 

गोरख के गीतन पर उनुकर खुद के आकलन :

 

पहिले गोरख पाण्डेय के आपन रचनन पर का विचार रहे इहो इहाँ जानल जरूरी बा काहे कि रचयिता कवनो मकसद, दृष्टिकोण, आँखिन देखल आ अनुभूतियन के नूं रचना के रूप देला। गोपाल प्रधान जी के सम्पादन में प्रकासित ‘ गोरख पाण्डेय: संकलित गद्ध रचनाएँ ‘ किताब में जनसत्ता के 1985 के 8 सितंबर आ 13 अक्टूबर के अंक में छपल दूगो गोरख पाण्डेय के साक्षात्कार सामिल बा।ओह साक्षात्कार में गोरख एगो सवाल -गीत खास करके भोजपुरी गीत, लिखे के प्रेरणा कइसे मिलल – के जबाब में कहले बाड़न कि सन 68 में किसान – आंदोलन से जुड़नीं। ओहिजा हिन्दी में लिखल गीत – नवगीत के का जरूरत हो सकत रहे? हमरा आपन सब रचना बेकार होत दिखाई पड़ल तब हम ‘ नक्सलबाड़ी के तुफनवा जमनवा बदली ‘ जइसन गीत लिखली।बातो सही बा लोक के भाषा में रचले साहित्य लोक के रूचेला आ लोक में रचेला – बसेला। कविता के लेके आपन चिंता के बारे में बोलत गोरख कहलन कि आजु के कविता देस के आम जीवन के धारा से कटि के कुछ साहित्यकारन भा कुलीन लोगिन के बीच के चीज हो गइल बा जे चिंता के विषय बा।एह स्थिति में ऊ भारतीय जीवन – हलचल में सामिल होखे के भूमिका नइखे निभा सकत।हमार चिंता बा कि कविता के कइसे आम जन के जीवन आ ओकर आजादी के लड़ाई के वाहक बना सकीं।ई बात गोरख पाण्डेय के गीतन में दिखाई पड़ रहल बा उहो थोक के भाव में। आगे इहो कह रहल बाड़े कि कविता प्रमाणिक रूप से जन आंदोलन के जमीन तइयार कर सकेला आ एकरे प्रयास ऊ अपना गीतन के माध्यम से कइले बाड़न। यानी कहीं कथनी आ करनी में अंतर नइखे मिलत जे प्रमाणित करत बा कि गोरख पाण्डेय लोक में असीम संभावना के देखत रहन आ गोरख संचहूं असीम संभावना के गीतकार रहन। कविता के बारे में आगे इहो कहि रहल बाड़न कि समाज खातिर उपयोगी कविता ओह समय के समस्यन से टकराली सं आ ओह समस्यन के दिसा देली सं आ हम अइसने कविता चाहेनी। उनुकर मान्यता रहे कि सब गलत विचार,मूल्यन आ संस्कारन के तुड़े में कविता पूरजोर भूमिका निभावेली सं आ आजादी के राह दिखावे में एगो मसाल के काम करि सकेली सं। गोरख के मान्यता रहे कि हमनी के खाली ऊपरी अन्हार से ना बलुक नीचे से उत्पीड़ित लोगिन के संघर्ष के फूटत रोसनी के बीच जी रहल बानी जां आ कविता खाली अन्हार के बारे में ना अन्हार के तुड़े वाली रोसनी के औजार के बारे में लिखल जा रहल बा आ लिखल जाई। गोरख पाण्डेय के कृतित्व समसामयिक जन आंदोलन में लोगिन के विरोध,उन्हिन के पीड़ा आ गुस्सा के स्वर बनि शब्दन के रूप लेले बा जे उनुकर भोजपुरी गीतन में भरल आगि आ व्यंग्य के मारक क्षमता के गति देवे में उजागर भइल बा। तब त गोरख कहि रहल बाड़े ” मैं अपने बारे में कह सकता हूँ कि मैंने कदम – कदम पर पाखंड और दमन के खिलाफ बगावत की है।”

 

गोरख के गीतन में असीम लोक संवेदना:

समाजवाद के परिकल्पना के सिद्धांत का रहे, केकरा खातिर रहे, बाजारवादी संस्कृति कइसे ओकरा में भटकाव ला रहल बा, राजनीतिक आ सामाजिक आज के बेवस्था में समाजवाद आपन राहि भुलाके छोटका के ओरि से मुँह मोड़ के बड़का के घर के राह धरि लेले बा।ओह सच्चाई के केतना सरल भाषा में केतना मारक व्यंग्य के साथ गोरख पाण्डेय रखले बाड़े :

नोटवा से आई

वोटवा से आई

बिड़ला के घर में समाई

समाजवाद बबुआ, धीरे – धीरे आई

…….

 

डाॅलर से आई

रूबल से आई

देसवा के बान्हे धराई

समाजवाद….

 

……

 

छोटका के छोटहन

बड़का  के  बड़हन

बखरा बराबर लगाई

समाजवाद……

 

साँच ह कि देस, समाज आ समाज के कवनो विशेष वर्ग दुखी – पीड़ित होखे अउर एगो बड़ जनसमुदाय के मूल्यन पर कुछ गिनल – चुनल लोग सत्ता अउर अर्थ के सुख भोगत होखे त कविता में प्रेम बेमानी हो जाला। गोरख के’ मेहनत के बारहमासा ‘ खाली बारहमासा के तर्ज पर नइखे सामाजिक आ राजनीतिक विद्रूपता के अनेकन रंग के निर्लज्ज सच्चाई के खोलि के रख देले बा :

 

श्रम के गुनगान –

 

चले  मेहनत  से  सबके अहार सजनी

बिना रोटी के न झनके सितार सजनी

हमरी  मेहनत से रेल अउरी तार सजनी

हमरी मेहनत से रूप आ सिंगार सजनी

….

 

सामाजिक सोषण आ समाजिक संरचना पर चोट करत :

 

अब्बो गांव – गांव रहे जमींदार सजनी

जइसे  रहरी  में  रहेला  हुड़ार सजनी

तोहरे सुगना अस सुगना हजार सजनी

रोज – रोज  होले इनके सिकार सजनी

……

दू गो गुंडा बोलवा के लठमार सजना

ढाहि दिहलस माटी के दिवार सजना

ओकर कोठिया पर कोठिया अटार सजना

हमार  एक  भइल  अंगना – दुआर  सजना

…….

 

जाति के दिवार खड़ा करके, धरम – करम के आड़ में सोषण:

उनके जूता सी के भइलीं हम चमार सजनी

उनके  डोली  ढोके हो गइलीं कहार सजनी

तेल  पेरलीं  उनके  चमकल  कपार सजनी

हम  मइल  भइलीं  तेली – कलवार  सजनी

…..

जाति – पांति के उठवलें दिवार सजनी

बाटि  दिहले  किसान  परिवार सजनी

भागि  धरम – करम  अवतार   सजनी

एहि  खून  चुसवन के हथियार सजनी

…… ‌

वोट के राजनीति आ मेहनकस के हिस्सा के ओकरे आँखि के सामने लूट:

बाति  अइसने  करेले सरकार सजना

ओकरा ओटवे से बाटे दरकार सजना

… ‌‌…..

उनके भरि दिहलीं सोना से बखार सजना

अपने  घर आइल बोझा दुई – चार सजना

…….

पालायन, पूंजीवाद,आर्थिक आ सारीरिक सोषण:

 

तूहूं  गइलऽ  नजरिया  के पार सजना

अस  जिनगी जिअल धिरकार सजना

उड़ी गइलीं कलकतिया बजार सजनी

जहाँ  मेहनत  के बड़े खरीदार सजनी

बड़े   पूंजीपति  सहरी  हुड़ार   सजनी

बड़े  नेता  बड़े  रंगुआ  सियार सजनी

केहू  पइसा  के जोड़ेला पहार सजनी

केहू हांफि हांफि खींचेला पहाड़ सजनी

……..

पुरूष प्रधान समाज में नारी के नियती आ नारी मनोविज्ञान के परख के गहराई देखीं:

 

उहां  मेम  लोग बड़ी मजेदार सजनी

पहिने कपड़ा त लउके उघार सजनी

सेठ  नाच  घर  बनावे रंगदार सजनी

साहब मेम के नचावे पुचकार सजनी

……

कर्ज में डूबत जात रहल देस, रूस – अमेरिका के धौंस पर बाति करत:

 

कब्बो रूस आगे अँचरा पसार सजनी

कब्बो चले अमेरिका के बजार सजनी

भइले दूनू हमरी छाती पर सवार सजनी

सबसे भारी डाकू सबसे हतियार सजनी

रूस अउरी अमेरिका के हुड़ार सजनी

लूटि  देस – देस करे  खयकार  सजनी

…..

 

दमन सोषण के विरोध एकजुटता,दलाल, पूंजीपति, जमींदार,कोट – कचहरी के खेल आ फलाफल बगावत के बिगुल:

खूनि चूसि बढ़े पूंजी बेसुमार सजनी

बढ़े महँगी, घटे जिनगी हमार सजनी

खून  चूस, देस बेचवा, लबार सजनी

ई दलाल, पूंजीपति, जमींदार सजनी

फरजी,कोरट -कचहरी, सरकार सजनी

हमें  लूटे  बदे  कइलें  तइयार  सजनी

इनसे निपटे के एके रस्ता – मार सजनी

जब हम मिली उठाइब हथियार सजनी

मचि चारों ओर भारी हाहाकार सजनी

भागे लगिहें देस छोड़ि के हुड़ार सजनी

अब गांव – गांव हो जा तइयार सजना

बिना क्रांति के न होई उजियार सजना

 

एह  बारहमासा में किसान – मजदूर के बारह महीना के बारह गो दुखे के वर्णन नइखे,ओह दुख के बारह गो कारण आ अंत में क्रांति के मंत्र गोरख पाण्डेय फुंकले बाड़न। केहू के जगावे खातिर दुर्गति के कारण,दमन- सोषण के कहानी, दमन-सोषण के जड़ आ ओकर काटि बतावल जरूरी होला जे एह बरहमासा में कइल गइल बा। जिनगी से जूझे के, प्रतिशोध के, अंधविश्वास आदि के सटीक चित्रण मिलता गोरख के एह गीत में।

 

मजदूर- किसान के जगावत कह रहल बाड़े:

 

हथवा  जगा  द हथियरवा जगा द

करम जगा द आ बिचरवा जगा द

रोसनी से रचऽ नया जहनवा हो संघतिया

सबके जगा द।

(जागरण से)

कब  तक सुतब मूंदि के नयनवा

कब तक ढोवब सुख के सपनवा

फूटलि ललकि किरनिया, चल तूहूं लड़े बदे भइया

शुरू बा किसान के लड़इया,चल तूहूं लड़े बदे भइया।

( गुहार से )

 

हक के आवाज उठावत:

 

जोते- बोये  वाला  के  होई  माटी  से   ममता

जे माटी के चाहे ओकर फल पर हक हो जाई।

भूखा – नंगा, रोटी – कपड़ा पर बोलीं झट धावा

जेकर हाथ चले मिल उहे मिलके लड़ी लड़ाई।

( जे माटी के चाहे से)

करे केहू, मौज लेवे केहू के कतना सुंदर कविताई ‘ जमीन ‘ में मिल रहल बा:

 

जाड़ा,गरमी,बरखा न जनलीं

गोहूं ओसवलीं त भूसा बनलीं

काहें  बरध सब खेतवा चरलें

हम  भइनी  कउड़ी  के  तीन।

केकरे जांगर से माटी फुलाइली

के   खाए   चाउर    महीन।

 

सोषक के सोषित के प्रति आचरण,सोच ,बन्धुआ बनाके पोसल, जरूरत पड़े त जान ओकर लेके मजा लेवे के मानसिकता ‘ मैना ‘ कविता में गजब बा:

 

एक दिन राजा मरलें आसमान में उड़त मैना

बान्हि के घरे ले अइले मैना ना

एकरे पिछले जनम के करम

कइनीं हम सिकार के धरम

राजा कहे कुंअर से अब तू लेके खेलऽ मैना

देखऽ कतना सुंदर मैना ना।

 

जबले खून पिअल ना जाय

तबले कवनो काम ना आय

राजा कहें कि सीखऽ कइसे चूसल जाई मैना

कइसे स्वाद बढ़ाई मैना ना।

 

कवि के मालूम बा कि आजादी के राह आसान ना होखे,सचेत करत कहत बाड़न:

 

बीहड़ रहिया भयावन अन्हरिया हो कि चलि हो भइले ना

मनई  मुकुति  के  ओर  हो  कि  चलि  हो  भइले  ना।

(  बीहड़ रहिया से)

‘ अब नहीं ‘ में कवि आम जनि के आवाज बनि हुंकार देत नजर आवत बाड़न।साफ शब्दन में हुंकार बा कि’ गुलमिया अब हम नाही बजइबओ,अजदिया हमरा के भावेले ‘।

‘ नेह के पांती’ में गोरख पाण्डेय प्रेम के मुकुति के राहि के चिराग के रूप में सामने ले आइल बाड़े।एहिजा ऊ प्रेम के माध्यम संघर्ष के पाठ पढ़ाके धारे देवे के प्रयासे नइखन करत घर आ सपना के जमीन तइयारो करत बाड़न।

तोहरे हथौड़वा से कांपे पूंजीखोरवा

हमरे  हँसुअवा  से  हिले भूंइखोरवा

तूं हवऽ जुझे के पुकरवा हो,हम  तुरहिया  तोहार

तूं हवऽ श्रम के सुरुजवा हो,हम किरनिया तोहार।

 

‘ जनता के पलटनि ‘ आ ‘ हिल्ले ले झकझोर दुनिया’ में जनता के ताकत,बगावत के बिगुल आ आजादी के सपना दिखावत कवि खुल के कहताड़े कि आजादी अब दूर नइखे।

 

जनता के आवे पलटनि

हिलेले झकझोर दुनिया

लड़ेलें किसनवा,लड़लें मजदूरवा

लड़े मिलि खूनवा पसेनवा

ढहे़ं महरजवा ढहन लागे रजवा

ढहे़ं जमींदरवा ढहलें पूंजीपतिया

हिलेले झकझोर दुनिया

बहुते नियरवा अजदिया के दिनवा

हिलेले झकझोर दुनिया।

 

‘ कोइला ‘ एगो छोट कविता ह जे बतावत बा कि विकास के गाड़ी बिना कोइला के ना चले बाकिर केहू ई सोचे वाला नइखे कि कोइला कहाँ से आइल आ ओकरा के खान से तोड़ि के ले आवे वाला के रोसनी काहे नसीब नइखे। मजदूर के जिनगी के सांच बखानत एगो सुंदर कविता।

गोरख पाण्डेय के गीत वर्ग संघर्ष आ सोषण – विद्रोह के प्रगतिशील चेतना से प्रेरित – पोषित बाड़ी सं बाकिर जिंदगी के वास्तविकता से कबो मुँह मोड़त नइखे मिलत।गोरख के गीतन में अद्भुत आ उत्सुक लोक जुड़ाव ओह गीतन के प्राण बा आ उहे ओह गीतन के जन के मन में घर बनावे के मुख्य कारण रहल बा। किसान – मजदूर के जीवन के अलावा नारी के स्थिति, सांप्रदायिकता, बेवस्था में अंतर्विरोध, धनलिप्सा आदि समाज आ राजनीति के अनेकन करूप पक्षन पर गोरख खुल के बाति करत आजादी के पक्षधर के रूप में खड़ा मिल रहल बाड़न। गोरख पाण्डेय आपन ओह सब अनुभवन के रचना में ढाले के प्रयास कइले बाड़न जवन अनुभव उनुका के भीतर से झकझोरले बा आ उहो शब्दन के अंगारा में पकाके।गोरख के कवितन से संवाद कइला पर इहो बुझाता कि हासिया आदमी के घर ना होखे,ऊ संघर्ष स्थल होखेला जहां आदमी संघर्ष के पाठ पढ़ि आपन घर आ सपना के जमीन तइयार करेला।

लोक में असीम संभावना देखे वाला गोरख पाण्डेय खुद असीम संभावना के कवि हवन ई प्रमाणित कर रहल बा उनुकर कृतित्व।एक लाइन में कहल जाय त गोरख पाण्डेय समसामयिक लोक यथार्थ के अभिव्यक्ति के अपना गीतन के मूल स्वर बनवले बाड़न।

कनक किशोर

राँची (झारखंड)

साभार –

१ गोरख पाण्डेय के भोजपुरी गीत

जीतेन्द्र वर्मा

२ गोरख पाण्डेय (आलेख)

प्रियंका दूबे

३ गोरख पाण्डेय: साक्षात्कारों के आइने से

समकालीन जनमत

 

  • कनक किशोर

 

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