भीरि पड़ी केतनो, न कबों सिहरइहें..
रोज-रोज काका टहल ओरियइहें!
भोरहीं से संझा ले, हाड़ गली बहरी
जरसी छेदहिया लड़ेले सितलहरी
लागे जमराजो से, तनिक ना डेरइहें!
रोज-रोज काका टहल ओरियइहें!
गोरखुल गोड़वा क,रोज-रोज टभकी
दुख से दुखाइ सुख, एने-ओने भटकी
निनियों में अकर-बकर, रात भर बरइहें!
रोज-रोज काका, टहल ओरियइहे!
फूल-फर देख के, उतान होई छतिया
छिन भर चमकी सुफल मेहनतिया
फेरु सुख-सपना शहर चलि जइहें!
रोज-रोज काका टहल ओरियइहें!
छोटकी लउकिया, बथान चढ़ि बिहँसे
बिटिया सयान, मन माई के निहँसे
गउरा शिव कहिया ले भीरि निबुकइहें!
रोज-रोज काका, टहल ओरियइहें!
- डॉ अशोक द्विवेदी