कबले रहबू परल अलोंता
बेर भइल अब छोड़ऽ खोंता
सोझां तोहरा आसमान बा
देखऽ आंखि उघारऽ मैना
अब त पांखि पसारऽ मैना !
कबों सांझि कबहूं दुपहरिया
कबों राति डेरवावे
अचके खरकि जाय पतई त
सुतबित सांस न आवे
बहुत दिना अन्हियारा जियलू
ना जाने केतना दुख सहलू
सूरुज ठाढ़ दुवारे तोहरा
बढ़िके नजर उतारऽ मैना !
केहू भोरावे दाना देके
केहू जाल बिछावे
केहू पांव में मुनरी डाले
बेड़ी केहू लगावे
पिंजरा के तूं नियति न मानऽ
अबहूं अपना के पहिचानऽ
गरे परल सोने क हंसुली
ओके तोरि निकारऽ मैना!
छांहे के असरा में जाने
केतना देंहि जरवलू
दहकत रहे दुपहरी
तबहूं गीत पराती गवलू
उठल घाम क पहरा देखऽ
हेमबरन भिनसहरा देख ऽ
अंगने सोने क बिहान बा
आपन रूप संवारऽ मैना !
अपना बदे राह जोहऽ तूं
आपन ठांव बनावऽ
हर मौसम खातिर अपना
माथे क छांव जोगावऽ
मन भीतर तोहरा उड़ान बा
हाथे में सगरी जहान बा
नया समय क सपना सिरजऽ
संइचऽ, धरऽ,ओसारऽ मैना !
- डॉ कमलेश राय