लोक-जीवन में आदमी के सगरो क्रिया-कलाप धार्मिकता से जुड़ल मिलेला। आदमी एह के कारन कुछू बुझेऽ। चाहे अपना पुरखा-पुरनिया के अशिक्षा आ चाहे आदमी के साथे प्रकृति के चमत्कारपूर्ण व्यवहार। भारतीय दर्शन के मानल जाव तऽ आदमी के जीवन में सोलह संस्कारन के बादो अनगिनत व्रत-त्योहार रोजो मनावल जाला। लोक-जीवन के ईऽ सगरो अनुष्ठान, संस्कार, व्रत, पूजा-पाठ, मंगल कामना से प्रेरित होला। ई सगरो मांगलिक काज अपना चुम्बकीय आकर्षण से नीरसो मन के अपना ओर खींच लेला। एह अवसर पर औरत लोग अपना कोकिल सुर-लहरी से अंतर मन के उछाह प्रकट करेला लोग। औरतन द्वारा गावे वाला गीतन में अवसर के अनुसार वर्णन के विषय तऽ होखबे करेला, सथवे ओह लोक-गीतन के उछाह में प्रकृतियो के नइखे भुलावल जा सकत। मंगल कामना वाला ओह लोक-गीतन में प्रकृति के सुन्दरता के साथ बनल रहेला।
साँच कहल जाला कि लोकगीत तऽ प्रकृति के उद्गार होला। साहित्य के छंदबद्धता आ अलंकारन से मुक्त मानवीय संवेदना के संवाहक के रूप में मधुरता बहा के आम आदमी के भी तन्मयता के लोक में पहुंचा देला। लोकगीत तऽ सामान्य आदमी के सहज संवेदना से जुड़ल रहेला। ओह गीतन में प्रकृति के सौंदर्य के बड़ा बढि़या प्रस्तुति कइल गइल बा। प्रकृति के वर्णन बा तऽ मन-भावनी सावनी महीनो के वर्णन मिली। सावन के महीना में प्रकृति के हरिहरी भरल सुन्दरता चारू ओर परिलक्षित होला। आकाश में करीआ-करीआ बदरी देख के संयोगिनी औरत पेड़ पर झूला डाल लेली। ओह बेरा झूला झूलत जवन गीत गावल जाला, ओह के कजरी कहल जाला। कजरी में बेला-चमेली आदि के फूल फूलाइल बल्लरीअन के सुन्दर वर्णन मिलेला। रउरो देखीं ना, –
बेला फूले असमान
गजरा केकरा गरे डालीं जी।
प्रकृति के संगीतमयी कहल जाला। जब प्रकृति गुनगुनाले तबे लोकगीतन के वास्तविक जनम होला। तरह-तरह के दृश्यन के सहज असर के कारने तऽ लोकगीत प्रकृति के रस में लीन हो जाले। कजरी, झूला, हिंडोला, आल्हा, गोधन, छठ आदि एकर प्रमाण हऽ। कातिक के अँजोरिया छठी के छठ व्रत कइल जाला। ओह अवसर पर निर्जलो व्रत रहला पर औरत लोग भाव-विभोर हो के गीत गावेला लोग। ओह गीतन में धार्मिक मनोभाव उजागर होला। धरम के नाम पर प्रचलित विश्वास पारिवारिक विचार के बल देला। ऊहे पारिवारिक विचार, घरेलू निष्ठा आ आत्मा के संयम आदि छठ गीत के विषय हऽ। ओह गीतन में हर जगह कोंहड़ा, नेबूआ, केरा, हरदी, ओल, कोन, सुथनी आदि सामानन के वर्णन मिलेला। देखीं ना, –
कवन देई के अइले जुड़वा पाहुन,
केरा-नारियर अरघर लिहले।
एगो चित्र अउरी देखीं। देखीं नाऽ, एगो भक्त परिवार छठ माई के पूजा करे नाव से घाट पर जाता। गंगा जी के झिलमिल पानी से चित्र और निखर जाता –
गंगा जी के झिलमिल पनीया
नइया खेवे ला मल्लाह,
ताही नइया आवेले कवन बाबू
ये कवना देई के साथ।
गोदिया में आवेलें कवन पूत
ये छठी मइया के घाट।।
सामाजिकता के जिंदा राखे खतिरा लोकगीतन में लोक संस्कृतियो के सहेजल जरूरी बा। कहल जाला कि लोकगीत ना रहीत तऽ पागलन के संख्या बढ़ गइल रहीत। एतने ना, लोकगीतन के कारने ही आजुओ सबके आपन गाँव-गिराव ईयाद आवेला। आजुओ ईहाँ के गाँवन में, जहवाँ छठ, पिडि़या, बहुरा, पनढरकऊआ आदि लोक व्रत-त्योहार लोक उत्सव के रूप में जीवित बा, ओहिजा प्रकृति भी जीवित बाऽ। शहर के गति से पिछुआइल लोक-गाँवन में सालो भर मौसम के अनुसार फल-फूल, साग-सब्जी के मनमौजी लता-लड़ी बेसुध होके घरन के छत-छान्ह पर पसरल रहेली आ अपना उन्मादल हरिहरी से मानव-मन के आकर्षित करत रहेली। सगरो मोहबे करेला। छठीए के गीत में एगो अउरी वर्णन देखीं, –
केरवा जे फरेला घवद से,
ओहपर सुगा मेरड़ाय,
सुगवा के मरबो धनुष से,
सुगा गिरे मुरछाय।
बियफे के पूजा में केरा के पूजा होखे चाहें रोजो साँझि के तुलसी के पूजा, प्रकृति रानी सब जगह वर्णित रहेली। हर मांगलिक अवसर पर झुण्ड में औरत लोग जब गीतन के झूम-झूम के गावेला लोग, तऽ ओहके झूमर कहल जाला। झूमरो में तुलसी के वर्णन देखीं, –
अपने त जाले रामजी कासी नहाए
हमरा के छोड़ले महा जाल
अकेले जीअरा तुलसी के
छोड़ दिहले राम।
आदमी के जिनगी में बिआह सबसे प्रसिद्ध आ प्रधान संस्कार हऽ। संसार के सगरो जाति-संप्रदाय में ई संस्कार बड़ा उछाह से मनावल जाला। बिआह के मांगलिक बेला पर गावे जाए वाला गीतन में आनन्द आ उछाह के सथवे करूणा आ वेदनो के मिश्रण रहेला। वइसे तऽ दूल्हा-दुलहिन कीहाँ गावे जाए वाला गीतन में अंतर होला, बाकिर तबो प्रकृति के सानिध्य रहेला। सगुन के गीत में आम के पेड़ के वर्णन देखीं, –
अमवा के देखुअन मोंजरिया लिहले
चेरिया बलकवा लिहले
अरे, ओही रे सगुन राम गइले
सीता के लेअइले
कोसिला मनवा हरषित।
राम जी मर्यादा पुरुषोत्तम के सथवे लोक-जीवन के महानायक हवें। मांगलिक गीतन में राम-कृष्ण के चर्चा जरूर होला। राम जी के बारात के आराम करे खातिर बरगद, आम आ महुआ के जुड़ल पेड़ अच्छा मानल जाला। देखीं एगो बिआह के गीत जेहमें सबके वर्णन बा, –
अमवा महुइया, बरगद जुड़ी छँइया
आरे जँहवा तेतर के ई गाछ
ऊहे दल उतरी।
बिआह के विधान में चउथारी होला। ओह चउथारी में ईनार के साथे पीपरे के पेड़ के परिक्रमा कइल जाला। चउथारी के अलावा धार्मिको लगााव के कारन पीपर के पेड़ के वर्णन लोक-कंठ से खूबे होला। एगो वर्णन रउरो देखीं, –
हम चली अइनी बरम बाबा आस हे
दीं ना बरम बाबा अपने सुहाग हेऽ।
ध्यान से देखल जाव तऽ भोजपुरी में देवीओ-देवता से जुड़ल अनगिनत गीत मिलेला। आराधना करे वाला लोग अपना-अपना तौर-तरीका से अपना आराधक के कृपा पावे के बेचैन लउकेला लोग। ओह आराधक लोग पर आधारित गीतन में लवंग, इलायची, पान, सुपारी के वर्णन खूबे मिलेला। रउरो एगो देवी-गीत देखीं, –
सुन्दर बा सेनुरा
सुन्दर लवंगीया
सुन्दर बा पान-सुपारी
हे मइया!
खोलीं केंवाड़ी।
देवी माई के वर्णन होई तऽ नीम के वर्णन होखबे करीऽ। देवी माई नीम के डाढ़ पर आसन लगावत आ झूला-झूलत वर्णित होली। पचरा आदि में तऽ रउरो सुनले होखेब। एगो गीत देखीं, –
नीमिया के डाढ़ मइया
बइठे आसन मारी
की झूली-झूली ना,
मइया गावेली गीत
की झूली-झूली ना।।
देवता में भगवान शिव सहज रूप से अपना पुजारी लोग पर प्रसन्न हो जाले। शिवजी के एही भोलापन के कारण भोला कहल जाला। भोला भंडारी के प्रसन्न करे खातिर भांग-धतूरा के जरत पड़ेला। देखीं, –
खोआ मलाई शिव के मनहीं ना भावे
भंगिआ के गोला कहाँ पाईं हो
शिव मानत नाही।
का ले के शिव के मनाईं हो
शिव मानत नाहीं।।
ई कहल जाला कि भगवान शिव भांग के सथवे धतूरो पीए लेऽ आ मगन रहेलेऽ। अड़भंगी शिवजी के गीतन में धतूरो के वर्णन मिलेला। एगो उदाहरण देखीं, –
फूलवा लोढली गउरा
धतूरा तुरली गउरा,
पतवा लिहली सुरकाई
ए शिव छोड़ दीं झीनी साड़ी।
एकरा बाद शिवजी के बेलपत्तर भावेला। उनका स्तुति के बेलपत्तरो के वर्णन देखीं, –
पूड़ी-कचैड़ी शिव के मनहीं ना भावे
बेलवा के पात कहाँ पायीं हो
शिव मानत नाही।
का ले के शिव के मनाईं हो
शिव मानत नाहीं।।
औरत लोग हमेशा दबावल गइल बा लोग। ओह लोग के गोड़ में कुल, खानदान, मान, मर्यादा, शील, सुभाव के बेड़ी लगावल बा, बाकिर अगर ईमानदारी से सोचल जाव तऽ औरत ना चहती तऽ लोकगीत एतना समृद्ध भइल रहीत? ई तऽ सभे जानेला कि अधिकांश लोकगीतन के रचइता लोग के नामे नइखे पता। एह हाल में अगर केहू सजोवले बाऽ तऽ ऊ हमरा-रउरा घर के नारीए बाड़ी। वर्तमान समय में आधुनिकता शहरन से हो केऽ भले गाँवन-देहातन के लोक-जीवन में आपन रंग जमा लिहले बाऽ, बाकिर अवसरे विशेष पर सही, आजुओ कहीं मांगलिक गीत सुनाला तऽ प्रकृति के विषद वर्णन आत्मा के तृप्त कऽ देला। मन के विभोर कऽ देला। एक बेर रउरो ध्यान तऽ देऽ के देखीं। ई पक्का बा कि राउरो मन अघाऽ जाई।
- केशव मोहन पाण्डेय
संपादक
सर्वभाषा त्रैमासिक