आईं, गुलरी के फूल देखीं नु….?

ढेर चहकत रहने ह  कि रामराज आई , हर ओरी खुसिए लहराई । आपन राज होखी , धरम करम के बढ़न्ती होई , सभे चैन से कमाई-खाई । केहू कहीं ना जहर खाई भा फंसरी लगाके मुई । केहू कबों भूखले पेट सुतत ना भेंटाई । कुल्हि हाथन के काम मिली , सड़की के किनारे फुटपाथो पर केहू सुतल ना भेंटाई , मने सभके मुंडी पर छाजन । दुवरे मचिया पर बइठल सोचत-सोचत कब आँख लाग गइल, पते ना चलल ।  “कहाँ बानी जी” के पाछे से करकस आवाज आइल, सोच के धार भोथरा गइल, आँख खुलि गइल, अकबकात हम पाछे देखनी त मलकाइन ठाढ़ रहनी । एक सुरिये बोलत रहनी, भर गाँव बुझाता मुंगेरी हो गइल बा, मचिए बइठ के सपनात बा । एक ठे सीरियल आवत रहल त , सगरी जवार ओके देखि के मुंगेरीलाल बन गइल बा । मरकिनवना सभके बिलबिलवले बा आउर अपने माजा मारत बा , सैर सपाटा करत बा । अपने त आगे नाथ न पाछे पगहा , दोसरो के ओइसने बुझत बा । नोटबंदी कइके पहिले ढेर जाना के नोकरी छिनलस , अब तनि देखी न एगो नया चीजु के लादे क हाला सुनात बा । एहू मे ढेर जाना के दोकान- दउरी बन होखी ।

हमरे नाही रह गइल त पुछनी कि भोरे भोरे केकरे पर दाना पानी लेके चढ़ल बानी जी । केकर सामत आइल बा आज भोरहीं , का भइल , कपारे कवनों भूत चढ़ गइल बा का ? घर दुवार कुल्हि एक कइले बाड़ू ? रउवा के त कुछो जइसे बुझइबे ना करेला , रामराज लिवावे खाति भोट डलववली हमरा से नु , केहर बा उ रामराज ? जिनगी भर के सहेजल हमार कुल्हि थाती ले मरल नोटबन्नी क के , अब ई जेबलुटलिया का क रहल बा ? गाँव जवार मे सभे बिलबिलाइल बा , कि जी एस टी आ रहल बा , रोटी रोजगार कुल्हि बिला जाई । इनिसपेक्टर राज हो जाई , सभ बन्हाये छनाए लागी । केहू तरे गरीब गुरबा आपन पेट पालत बाड़े , पलिवार के नाय खेव रहल बाड़े , ओहू पर बीपत ।

मुँहफुकवना , टेकनालाजी लियावत ह , अब बूढ़ पुरनिया कुल्हि कम्पुटर सीखिहें ? आपन घर त बनाय के रख नाही पवने , दुनिया के घर बनावे चलल हउवें । गलोबल भिलेज के सपना लेके एने ओने बउवात डोलत बाड़ें । इहवाँ तवन पहिले  किसान बेचारा फंसरी लगा के मूवत रहने ह , अब कुल्हि दोकान वाला मूइहें । बुझाता कि सभके चिता मे आग लगाइए के मानी । बताईं भला , छोट छोट मंदिरवों तोड़त फोड़त बाड़े सन , अब शंकरो जी के रहाइस नइखे बाचल । भोरे जा के एक लोटा जल चढ़ावत रहनी ह , जवने मंदिर मे , काल्ह ओकरो तोड़ दीहने सन । इ कवन राज ह जी , बताई न । बड़ा धउर धउर के “हर हर ……….घर घर ……….” करत रहनी ह । अब बोलती काहे ना , काहे मुँह बन के बइठल बानी । गेरुवा बस्तर पहिर के ढेर डोलनी , अब का पहिरब? अब ओकरो पर टेकस लाग गइल बा।

घरे में हमनी के भाषा के इज्जत देवे में 7 बरिस ले बहका रहल बाड़े। आ बहरे जा के भोजपुरी – भोजपुरी । ई त हाथी के दात हो गइल जी , खाये ला आउर ,देखावे ला आउर । पूरा नवटंकी बा जी , भर जहान के मूरख बनावे में लागल बा , रोटी छीने मे लागल बा, ओकर मुँह फूकों । अब हमरे त बुझाइए गइल कि आज ले इ जवने “गुलरी के फूल” क सभके सपना देखावत डोलत बाड़े , घबराय मति इनहूँ के डोलल “गुलरी के फूल” हो जाई  ।

एहर बरिसन से एगो अलगे बीपत घहराइल बाटे जवना के लोग कोविड-19 भा कोरोना कहि रहल बा। एकरा में समुंदर लेखा लहर आ रहल बा। कादों दू गो लहर आ के लवट चुकल। 42-43 लाख लोगन के दुनिया से उठा ले गइल। तीसरकी के बाट जोहा रहल बा। उहो अइबे करी आ कुछ अउर लोगन के ए दुनिया से लेइयो जाई। जाने कतने लो आक्सीजन ना मिलला से मरि गइल आ सरकार आंकड़ा के साबुन से धोवे में लागल बा आ कहतिया कि ओकरा लगे अइसन कवनो सूचना नइखे कि आक्सीजन के कमी से केहुओ मुअल बा। मने कुछो। अललै गंगा के पीये में लागल बिया। आम मनई के घाव पर मरहम लगावे के जगहा अपमान कर रहल बा। बेरोजगारी आ मंहगाई के मुँह सुरसा लेखा बढ़ले जाता आ सरकार कादो दोसरा के फोन पर कइल बतकही बटोरे आ सुने में अझुराइल बा।

मलकाइन के ई कुल्हि बाति सुनके हमरो माथा भन्नाइए गइल । हमरो लागल कि साँचो हमनी के ठगा गइनी सन । ओह घरी मति मरा गइल रहे कि मुहुरते खराब रहे , पता ना । बाकि हमरे एह सोच से ढेर जाना के सोच मिल रहल बा कि ई कुल्हि चक्कर एहनी के गर क फंसरी बनी । एगो अइसन सहजोगियन के झमार अलगा गइल, जवन आज ले संग ना छोड़ले रहल ह कबों । अब त भइया रउवा सभे सोचीं कि आगु का करे के बा, माथा दरद के गोली सेरीडान लेवे।

 

जयशंकर प्रसाद द्विवेदी

संपादक

भोजपुरी साहित्य सरिता

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